Tuesday, December 13, 2011

हशिमपुरा 22 मई चैप्टर-3

कहीं नहीं है कहीं भी नहीं लहू का सुराग



टेलीफोन मिलाते ही जो रिंगटोन आयी वह थी चक दे इंडिया । इसमें कोई अजूबा नहीं था। आजकल हर तीसरी चौथी रिंगटोन यही होती है। खास तौर से नौजवानों के फोन की। मध्यवर्ग सपनों का सबसे बडा खरीददार होता है और चक दे इंडिया ने उसके सामने एक बडा लुभावना सपना बेचा है। आबादी के एक बडे हिस्से के गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने के बावजूद इंडिया यानी भारत जीत सकता है। उदारीकरण के दौर में जीतने का मतलब है भारतीय आई.टी. कम्पनियों का दुनिया भर में छा जाना, कुछ लाख लडके, लडकियों का ऐसे पेशों को हासिल कर लेना जिनका कुछ वर्ष पहले तक उन्होंने नाम भी नहीं सुना था या फिर फोर्ब्स में विश्व के सबसे धनी 100 लोगों में कुछ भारतीयों का शुमार हो जाना।
मुझे इस रिंगटोन को सुनकर थोडा आश्चर्य हुआ। यह रिंगटोन चालीस वर्ष के पेटे में पहुँचे मध्य-वय के एक ऐसे शख्स के टेलीफोन से आ रही थी जो बीस साल पहले भारतीय राज्य द्वारा कत्ल होते-होते बचा था। इसके मन में तो भारतीय राज्य के प्रति नफरत और गुस्सा भरा होना चाहिये था फ्रिर कैसे यह चक दे इंडिया बजा रहा था ? इस शख्स का नाम जुल्फिकार नासिर था और 16 नवम्बर 2007 को मसूरी से दिल्ली की तरफ लौटते समय रास्ते मे रुककर इससे मिलने का मेरा इरादा था। मैं हाशिमपुरा से जुडे तमाम लोगों से मिल चुका था पर अभी तक जुल्फिकार नासिर से मेरी लम्बी मुलाकात नहीं हो पायी थी। हाशिमपुरा घटना की बीसवीं सालगिरह के मौके पर जब मेरठ से कुछ औरतें और मर्द लखनऊ पहुँचे तो उनमें जुल्फिकार नासिर भी था और माधवी कुकरेज़ा के घर पर मेरी उससे हल्की फुल्की मुलाकात हुयी थी तभी मुझे यह अहसास हो गया था कि नहरों से बचकर निकले लोगों में सबसे अधिक फोकस्ड और दुनियांदार जुल्फिकार ही है। लखनऊ में भीड-भाड और इस समूह के व्यस्त कार्यक्रमों में विस्तार से बातें करना संभव नहीं है अत: मुझे अलग से उससे बातें करनी होंगी । मैं मसूरी में लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी में साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान भारतीय राज्य की भूमिका पर वरिष्ठ नागरिक एवं सैनिक अधिकारियों के समक्ष बोलने गया था और अपने भाषण के दौरान हाशिमपुरा का जिक्र करते हुये मुझे यकायक लगा कि मुझे इसी यात्रा में जुल्फिकार नासिर से भी मिल लेना चाहिये। हांलाकि उस दिन वह व्यस्त था और अगले दिन ट्रेन में रिजर्वेशन की समस्या के कारण उस यात्रा में तो मुलाकात नही हो पायी पर टेलीफोन पर जो लम्बी बातचीत हुई उसमे मै उसे यह समझाने में कामयाब हो गया कि मेरा उससे मिलना कितना जरूरी है और उसे मेरे लिये समय निकालना ही पडेगा ।
बाद के दिनों में मेरी उससे कई मुलाकातें हुयीं- कुछ छोटी कुछ लम्बी। हर बार मैं उसकी याददाश्त और नैरेशन की क्षमता से प्रभावित हुआ। मझोले कद और स्वस्थ शरीर का मालिक यह एक दुनियांदार और सफल व्यवसायी था जिसने मृत्यु से इतना निकट का साक्षात्कार किया था कि स्वयं उसके शब्दों में हादसे के कुछ वर्षों बाद तक गहरी नींदों में पसीने से तर-बतर वह जाग उठता और अधखुली आँखों से पी.ए.सी., लाशों और बन्दूकों के सपने देखा करता था। इस हत्याकाण्ड में बच निकलने वाले दूसरों से वह इस अर्थ में अधिक भाग्यशाली था कि उसकी मुलाकात तत्कालीन सांसद और मुस्लिम मुद्दों पर काम करने वाले सैय्यद शहाबुद्दीन से नहर से बच निकलने के फौरन बाद हुई और उसे न सिर्फ उनके घर में शरण तथा इलाज की सुविधा मिली बल्कि उनके सिफारिशी खत के सहारे उसका दाखिला जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में एक तकनीकी पाठ्यक्रम में हो गया और वहाँ की शिक्षा और पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते उसने अपने खानदानी धन्धे में खुद को एक कामयाब व्यापारी की तरह स्थापित कर लिया। कामयाबी ने उसे इस कदर व्यस्त कर दिया है कि कई-कई बार प्रयास करने के बाद ही वह मुझे बातचीत करने के लिये वक्त दे पाता है।
ऐसे ही एक मौके पर जब मैंने उससे यह वादा करा लिया कि वह पूरा दिन मुझे देगा मैं उसे लेकर मुरादनगर की तरफ बढा। तारीख ठीक 22 मई यानी मौत के मुँह से निकलने की बरसी ! चौबीस साल बाद जुल्फिकार नासिर ने उन्हीं रास्तों से एक बार फिर यात्रा की जहाँ जहाँ से उसे लेकर इकतालीसवीं बटालियन का ट्रक यू.आर.yooयू.1493 गुजरा था। ट्रक पर बैठने वालों को अहसास था कि वे हिरासत में लिये जाने के बाद थाना सिविल लाइंस या जेल ले जाये जाएँगे । यह आख़िरी ट्रक था जिसमें उन चालीस बयालीस लोगों को ठूस दिया गया था जो भीड़ में से छाट कर अलग बिठा दिए गए थे | इन्हें अलग करने का एक ही आधार समझ में आ रहा था कि ये सभी कम उम्र के हटटे कट्टे नौजवान थे |इस अलग समूह के साथ सड़क के किनारे नीम अँधेरे में ऊंघते पुराने छतनार नीम के दरख्त के नीचे सड़क की पटरी पर जमीन पर बैठे जुलफिकार ने दो से अधिक घंटों के दौरान घरों से निकाले गए लोगों को धीरे धीरे छटते देखा| उनमें से कई को जो ज्यादा बूढ़े थे या बीमार लग रहे थे , घर जाने के लिये कह दिया गया | ऐसे लोग तेजी से अपनी अपनी गलियों की तरफ लपके|जिनके सगे सम्बन्धी पीछे छूट रहे थे वे जरूर रुक रुक कर कातर निगाहों से उनकी तरफ देखते पर पीछे से कोई पुलिस वाला हुर्रियता और वे गली खाकर आगे भागते | इनमें जुल्फिकार के दादा अब्दुलबारी भी थे |दादा पोते की निगाहें आपस में टकराई और ज़ुल्फिकार की रुलाई छूट गयी| पता नही दादा का ध्यान उसके आसुओं पर गया भी या नही, ज़ुल्फिकार नें एक सिपाही को उनके बगल में लाठी पटकते और जोर से उन पर चिल्लाते देखा | दादा के जाने के बाद उसका मन और जोर जोर से रोने को करने लगा | उसके साथ पकड़ कर लाये गए दो चाचा मो.इकबाल और मो. अशफाक के साथ पिता अब्दुल जब्बार को पहले ही दूसरी ट्रको पर बिठा कर भेजा जा चुका था |सडक की पटरी पर एक समूह में बैठा जुल्फिकार , धीरे धीरे जमीन पर उतरी उस उमस भरी अंधेरी रात में पूरी तरह अकेला महसूस कर रहा था | शायद वहाँ मौजूद दूसरे किशोरों की स्थिति उससे भिन्न नही थी |
जब सिविल लाइंस थाने पर थोड़ी देर रुक कर ट्रक आगे बढ़ा तो उन्हे ऐसा लगा कि वे जेल ले जाये जा रहे हैं | बाहर सड़कें पूरी तरह से वीरान थीं, उन्हें ट्रक की फर्श पर उकड़ूँ बैठने के लिए मजबूर किया गया था और ट्रक के पिछले हिस्से को आधा ढकने वाले लोहे तथा लकड़ी के पटरे पर कमर टिकाये सिपाहियों को बेधकर बाहर देख पाना काफी हद तक असंभव था पर स्वाभाविक मानवीय उत्सुकता से घुटनों पर बैठा हर शख्श बाहर झाकनें की कोशिश कर रहा था | अगर कोई जरा भी सर उठानें की कोशिश करता तो उसके सर पर मजबूत हाथों की चपत या बंदूक का कुन्दा पड़ता | पर इसके बाद भी बाहर की दुनिया इतनी परिचित थी कि जो थोड़ी बहुत झलक उन्हे मिली उससे उन्हे पीछे छूटने वाले इलाकों का कुछ कुछ आभास जरूर हो रहा था |बेगम पुल से होता हुआ ट्रक जब दिल्ली रोड पर मुड़ा तो उन्हें आश्चर्य अवश्य हुआ किंतु जो कुछ घटने वाला था उसका अनुमान ट्रक में गम्भीर चेहरों और फुसफुसा कर बात करने वाले अपने अभिरक्षकों को देखकर भी उन्हें नहीं हुआ।
इस घटना को दिल्ली के असिस्टेंट सेशन जज के सामने 8 अगस्त 2006 को याद करते हुये जुल्फिकार नासिर ने बताया “ 22 मई 1987 , जुम्मे के दिन मैं सायं 6 बजे के आसपास अपने घर की छत पर नमाज पढ रहा था तभी कुछ फौजी वहाँ आये। फौजी मुझे, मेरे पिता , दो चाचाओं तथा बाबा को गली के बाहर सडक पर ले गये ।वहाँ पहले से बैठे चार पाँच सौ लोगों के बीच हमें भी बैठा दिया गया। ...........................पी.ए.सी. ने मोहल्ले के लोगों को दो हिस्सों में बाँट दिया, एक तरफ नौजवान थे और दूसरे समूह में बूढे और बच्चे। बूढे बच्चों को छोडकर मेरे पिता और चाचाओं समेत लोगों को पी.ए.सी. के ट्रकों में भर कर भेज दिया गया। अंत में बचे चालीस पैंतालिस हट्टे कट्टे लोगों, जिनमें मैं भी शरीक था ,को पी.ए.सी. के आखिरी खडे ट्रक पर बैठा दिया गया । ट्रक पर हमें घेर कर पी.ए.सी. के लोग इस तरह खडे हो गये थे कि हम सब बाहर से दिखायी नहीं दे रहे थे । हमें अपने सर झुकाकर बैठने की हिदायत दी गयी और जिसमें किसी ने सिर उठाने की कोशिश की उसे बन्दूकों के बट और गालियों से नवाज़ा गया। जितना कुछ बाहर से मैं देख सका उससे यह स्प्ष्ट हो गया कि हमारा ट्रक दिल्ली जाने वाली सडक पर था । एक-डेढ घंटा सफर करने के बाद ट्रक मुरादनगर में गंग नहर की पटरी की तरफ मुडा। नहर की पटरी पर लगभग एक डेढ़ किलोमीटर जाने के बाद ट्रक रुका ------“
बीस वर्ष बाद 22 मई 2011 को अन्दाज से जुल्फिकार नासिर ने टैक्सी के ड्राइवर को रुकने के लिए कहा। मैं पिछली सीट से नीचे उतरा पर अगली सीट पर बैठे हुये जुल्फिकार को कोई जल्दी नहीं थी। नीचे उतर कर मैंने देखा कि नहर की पटरी कोलतार की एक पक्की सडक में तबदील हो चुकी थी। जहाँ हम रुके वहाँ आम के दो पुराने दरख्त खडे थे । शायद उन्हीं को देखकर जुल्फिकार ने जगह पहचानी थी। पर वह गाडी से क्यों नहीं उतरा? मैंने उसके चेहरे पर उडती नजर डालकर कारण तलाशने की कोशिश की। अपने मक्तल पर आकर वह विचलित हो गया सा लगता था। मैंने चुपचाप खडे होकर उसे अपनी भावनाओं पर काबू पाने का मौका दिया और तेज गति से बहते हुये उस पानी को निहारता रहा जिसमें बीस साल पहले ताजा जख्म लिये बीसियों शरीर बहे होंगे। थोडी देर बाद जुल्फिकार नासिर भी नीचे उतरा।
22 मई 1987 के बाद नासिर की घटनास्थल पर यह दूसरी यात्रा थी। इसके पहले सिर्फ एक बार और वह यहाँ आया था। थोडी देर तक इधर उधर की बातें करने के बाद वह सहज हो गया और उसने सधे हुए ढंग से अपनी आपबीती सुनानी शुरू की।
ट्रक के रुकते ही पीछे खडे सिपाहियों में से कुछ नीचे कूदे। सबसे पहले उन्होंने लकडी और लोहे का वह पटरा नीचे गिरा दिया जो जंजीरों और कुण्डों से इस तरह जकडा हुआ था कि ट्रक का पिछला हिस्सा एक बन्द कमरे का सा आभास देता था और जिसके नीचे गिरते ही ऐसा लगा कि जैसे कमरे की एक दीवार हटा दी गयी हो। नीचे से कडकती आवाज में बाहर कूदने का एक आदेश आया । सबसे पहले यासीन कूदा । पता नहीं वह आदेश का आतंक था या किसी ने उसे ऊपर से नीचे ढकेल दिया था पर उसके नीचे गिरते ही दहशत पैदा करने वाली गोली चलने की एक आवाज आयी और नासिर ने उसे जमीन पर गिरते तथा उसके बाद दो लोगों द्वारा हाथ पैर पकडकर हवा में झुलाते हुये नहर में फेंके जाते देखा। इसके बाद कोई आसानी से बाहर नहीं कूदा। ट्रक पर मौजूद सिपाहियों ने अशरफ नाम के दूसरे लडके को ऊपर से नीचे ढकेल दिया । गिरते ही उसे भी गोली मारी गयी और नहर में फेंक दिया गया। जुल्फिकार ने ट्रक के अन्दर भीड में धंसने की कोशिश की किंतु दो मजबूत हाथों ने उसे कमर से पकड कर घसीटा और अपने अगल बगल के लोगों को पकड कर नीचे फेंके जाने से रोकने की असफल चेष्टा करता हुआ वह भी जमीन पर जा गिरा। उसके जमीन पर गिरते ही एक राइफल गरजी और उसकी कांख में घुसती हुयी गोली सीने के पास मांस चीरती हुई पिछले हिस्से से बाहर निकल गयी। सहज बुद्धि ने उसे बताया कि बचने का एक ही रास्ता है कि हत्यारों को अपनी मृत्यु का विश्वास दिला दिया जाय। उन्होंने उसे उठाकर नहर में फेंक दिया । नहर में बहते पानी में न गिरकर वह किनारे उगी घनी झाडियों के पास गिरा और थोडी दूर बहने के बाद एक झाडी में अटक कर रुक गया। उसके लिए समय जैसे ठहर गया था। काँख के नीचे का जख्म अभी ताजा था और दर्द सहनीय । जख्म से टपकता हुआ खून आसपास के पानी में हल्का लाल वृत्त बना रहा था जो बहाव के कारण पूरी तरह बनने के पहले ही टूट-टूट जा रहा था । वह निश्चेष्ट मृत शरीर सा पडा रहा, लोगों के चीखने चिल्लाने, हत्यारों की ललकार और गालियाँ तथा गोलियों की आवाजें उसके कानों से टकरातीं रहीं और उसे सब कुछ बहुत दूर घटता सा लगता रहा। अचानक विपरीत दिशा से रोशनी का एक वृत्त आया और नहर की पटरी, झाड-झंखाड और बहता पानी दूधिया हो उठे। आते हुये शोर शराबे से उसे सिर्फ यह अहसास हुआ कि सामने से कोई दूसरी गाडी आ गयी है और उसकी गाडी पर सवार सिपाही गाली गलौज़ कर आने वाली गाडी के ड्रायवर से हेडलाइट्स बुझाने के लिए कह रहें है । फिर अँधेरा छा गया। कुछ ही क्षणों में उसे अपने ट्रक के इंजन की घुरघुराहट सुनाई दी । बिना हेडलाइट जलाये ट्रक के आगे की तरफ बढने का अहसास हुआ। कुछ ही पलों बाद फिर से सारा इलाका रौशन हुआ और एक गाडी चिंघाडती हुई नहर की पटरी से मेरठ दिल्ली राजमार्ग की तरफ लपकी। एक बार फिर से अन्धेरा छा गया। झाडी से लटके-लटके जुल्फिकार ने अन्दाज लगाने की कोशिश की कि जो गाडी अभी गुजरी है वह उन्हें लाने वाला पी.ए.सी. का ट्रक था या सामने से आने वाला दूसरा वाहन। यह गुत्थी अभी सुलझी भी न थी कि एक बार फिर इलाका रौशन हुआ। तेज रफ्तार से कोई दूसरा वाहन भी उसी दिशा में गुजरा । मतलब कि दोनों गाडियां वहाँ से जा चुकीं थीं | इसके बाद एक लंबा सन्नाटा पसर गया।
अचानक उसे लगा कि कोई उसे छू रहा है। उसका पूरा शरीर काठ हो गया। तो मौत से बचने की उसकी जद्दोजहद खतम हो गयी और हत्यारों ने उसे ढूँढ ही लिया ? वह अपनी सारी हरकतें रोक कर आँखें मूँदे उस पल का इंतजार करता रहा जिसमें पहले एक तेज आवाज सुनाई देगी और फिर पिघलते हुये शीशे को अपने शरीर में घुसते हुये वह महसूस करेगा । एक बार फिर किसी ने उसका शरीर सहलाया और उसे फुसफुसाहट में एक परिचित आवाज सुनायी दी । उसने घबराकर आँखें खोलीं तो उसे अपने बगल में आरिफ लेटा हुआ दिखा । आरिफ मुहल्ले का ही लडका था और ट्रक पर उसके साथ ही चढाया गया था। वह कब पानी में बहता हुआ आकर उसके पास टिक गया, जुल्फिकार को पता ही नहीं चला। यह तो थोडी देर बाद उसे अहसास हुआ कि आरिफ को कोई चोट नहीं लगी थी | जैसे ही गोलियाँ चलनी शुरू हुयी उसने पी.ए.सी. की ट्रक से कूदकर भागने की कोशिश की और सीधे नहर में गिरा । आरिफ की उपस्थिति से उसे थोडा बल मिला। और उम्मीद बनी कि वे दोनो मिलकर मौत से लड सकेंगे। यद्यपि पूरी तरह से खामोशी छायी थी फिर भी खौफ ने उन्हें घंटे-डेढ घंटे सर उठाने से रोका। जुल्फिकार ने आरिफ को भी बोलने से रोक दिया । समय बहुत धीरे धीरे गुजर रहा था और यदि ठंडे हो गये उसके जख्म से दर्द की टीसें न उठने लगीं होतीं और झाडियों को पकडे-पकडे हाथ दुखने न लगे होते तो शायद थकान का मारा जुल्फिकार वहीं सो जाता। आरिफ जख्मी तो नहीं था लेकिन दिन भर के रोजे की वजह से भूख से टूटते हुये शरीर और झाडियों से लटके रहने के कारण दर्द करते कन्धों ने उसे मजबूर किया और उसने जुल्फिकार को नहर से बाहर निकलने के लिए तैय्यार कर दिया । बाहर नीम अँधेरे में नहर की पटरी पर तीन जख्मी पडे हुये थे । एक को जुल्फिकार ने पहचाना । हाशिमपुरा का ही कमरुद्दीन था। बाकि दो को आरिफ या जुल्फिकार नहीं जानते थे। कमरुद्दीन खून मे डूबा हुआ था और बुरी तरह से कराह रहा था। जुल्फिकार ने झुक कर उसे उठाने की कोशिश की। कमरुद्दीन ने भी अपने दोनो हाथ ऊपर उठाने का प्रयास किया पर उसके जिस्म में इतनी ताकत नहीं थी कि वह सहारे से भी खडा हो सके। आरिफ और जुल्फिकार ने उसके दाहिने-बायें बाजुओं को पकड कर उसे सहारा देने की कोशिश की पर उसका जख्मी शरीर निर्जीव सा झूल गया। उसके जख्मों से खून के फव्वारे से छूट रहे थे और जुल्फिकार और आरिफ के भीगे कपडों पर लाल रंग की चादर सी छाती जा रही थी। उन्होंने उसे लगभग घसीटना शुरु किया। वह बुरी तरह से कराह रहा था और उस अन्धेरी स्याह रात में बीच-बीच में उठती उसकी चीखें दूर तक फैले सन्नाटे को चीरती हुयी शून्य में विलीन होती जा रहीं थीं। घटनास्थल से डेढ-दो किलोमीटर दूर मेरठ दिल्ली राजमार्ग तक पहुँचने में उन्हें जैसे युगों लग गये। जुल्फिकार नासिर को अपना जख्म भूल गया था पर इस घटना को मेरे सामने बयान करते समय उसे इतना स्पष्ट याद था कि हर दस पन्द्रह कदम के बाद उनके हाथों में झूलता हुआ कमरुद्दीन का शरीर धरती पर टिक जाता और वे थोडी देर सुस्ताने के बाद फिर पहले जैसा ही प्रयास करते । बमुश्किल , कराहते हुये कमरुद्दीन को उठाते और घिसटते हुये आगे बढते । समय उनके लिये तकलीफदेह ढंग से धीरे-धीरे सरक रहा था। जुल्फिकार को याद नहीं कि उन्हें इस डेढ-दो किलोमीटर का सफर तय करने में कितना समय लगा पर इतना याद है कि जब वे टी जंक्शन पर पहुँचे तो प्यास और थकान के मारे वे तीनों सडक पर जैसे ढह पडे। कमरुद्दीन तकलीफ के साथ हांफ रहा था।
आज तो वहाँ पर एक बडा ढाबा- गंग नहर ढाबा के नाम से मौजूद है और जब हम वहां पहुंचे, दिन के लगभग ग्यारह बजे थे और उस ढाबे में लगभग 500 लोग खा पी रहे थे। 22 मई 1987 तक दिल्ली मेरठ राजमार्ग इतना चौडा नहीं हुआ था और आज के चौडे पुल से भिन्न एक छोटी सी पुलिया गंग नहर पर थी। इस गंग नहर ढाबे की जगह कई छोटे-छोटे ढाबे और चाय पान की दुकाने वहाँ मौजूद थीं। कमरुदीन को उन्होंने पुलिया के सहारे जमीन पर बिठाया और खुद पुलिया पर बैठ गये। कमरुद्दीन की अस्फुट कराहों से जुल्फिकार को लगा कि वह पानी मांग रहा है। वह खुद भी बुरी तरह से प्यासा था । उसने चारों तरफ नजरें दौडाईं , थोडी दूर पर एक ढाबे में हल्की सी रोशनी दिखी । लगता था कि दूकान बढाने के बाद कुछ लोग वहां सो रहे थे। उसने कमरुद्दीन को आरिफ के हवाले किया और ढाबे की तरफ बढा। उसे किसी को जगाने की जरूरत नहीं पडी। ढाबे के बाहर अन्धेरे में दो लोग खडे थे जो शायद कुछ देर पहले आने वाली गोलियों की आवाजों से जग गये थे और थोडी दूर नहर पर क्या कुछ हुआ होगा यह जानने और अब जुल्फिकार को अपनी तरफ बढते हुये देखकर ,उसका मकसद भांपने की कोशिश कर रहे थे। खून से लथपथ जुल्फिकार ने उन्हें जो कुछ बताने की कोशिश की, उसे पता नहीं वे कितना समझे या क्या कुछ समझे पर उनमें से एक अन्दर जाकर एक गिलास ले आया और उंगली से एक हैण्ड पाइप की तरफ इशारा किया जो थोडी दूर पर ही जमीन में गडा हुआ था। जुल्फिकार ने आगे बढकर गिलास में पानी भरा और एक घूँट में ही गटागट पी गया। उसने दूसरी बार गिलास फिर भरा और घायल कमरुद्दीन की तरफ बढा। उसके पीछे-पीछे वे दोनो भी आये। वहां पहुंचकर थोडी देर के लिए वह चकराया , आरिफ का कहीं अता-पता नहीं था। आरिफ को कहीं चोट नहीं लगी थी और ऐसा लगा कि घायल कमरुद्दीन को छोडकर वह भाग गया था।
उसने आरिफ को चरों तरफ तलाशने की कोशिश की लेकिन वह कही दिखाई नहीं दिया। हाशिमपुरा हत्याकाण्ड में बचे हुये लोगों में आरिफ एक ऐसा शख्स है जो बाद में कभी नहीं देखा गया। न तो किसी पुलिस रिकार्ड में उसका जिक्र आया और न ही किसी अदालत में वह पेश हुआ। हाशिमपुरा के बचे हुये लोग पिछले बीस वर्षों में आन्दोलनो और मीडिया के जरिए खबरों में आते रहे किंतु आरिफ कभी भी सामने नहीं आया। मुझे हाशिमपुरा मे मालूम चला कि उसका खाता पीता परिवार इस घटना के बाद हाशिमपुरा छोडकर शहर में कहीं और जा कर बस गया है और हाशिमपुरा को लेकर चलने वाले किसी भी आन्दोलन से अपने को दूर रखता है।
जुल्फिकार जब पानी लेकर कमरुद्दीन के पास पहुँचा, उसकी हालत और खराब हो चुकी थी । वह बडी मुश्किल से कराह पा रहा था। जुल्फिकार ने घुटनों के बल बैठकर पुलिया से टिककर झुकी हुई उसकी गर्दन को सीधा करने की कोशिश की और गिलास उसके मुँह से लगाया। कमरुद्दीन शुरू में गटक-गटक कर और फिर तेजी के साथ पानी पीता रहा। बहुत जल्द गिलास खाली हो गया। जिस तरह खुले गले और कातर आँखों से कमरुद्दीन उसे देख रहा था उससे लग रहा था जैसे अभी उसकी प्यास बुझी नही थी ,वह और पानी चाहता था। जुल्फिकार ने अपने पीछे खडे दोनो अपरिचितों को देखा। उनमे से एक गिलास लेकर और पानी लेने चला गया। कमरुद्दीन की गर्दन रह-रह कर लुढक जा रही थी और उसे अपनी गोद में सीधा रखने का प्रयास करने मे जुल्फिकार को मुश्किलें आ रही थी। लगता था कि शरीर से बह चुके खून ने धीरे-धीरे उसे इतना अशक्त कर दिया था कि अब सहारा लेकर भी वह बैठ नहीं पा रहा था।
पीछे खडा आदमी सब कुछ समझने की कोशिश कर रहा था। जुल्फिकार ने जो कुछ उसे बताने की कोशिश की उससे वह क्या कुछ समझा यह तो नहीं कहा जा सकता किंतु उसे यह जरूर पता लग गया था कि कुछ बहुत गंभीर घटा है और इसकी सूचना फौरन पुलिस को देनी चाहिए। इसी बीच दूसरा व्यक्ति गिलास में पानी लेकर आ गया। जुल्फिकार ने कमरुदीन को दुबारा पानी पिलाने की कोशिश की पर इस बार मुश्किल से एक घूँट पानी उसके हलक मे गया होगा कि उसकी गर्दन लुढक गयी । बार-बार कोशिश करने के बाद भी वह अपनी आँखें नहीं खोल पा रहा था और पानी उसके होंठो के कोरों से नीचे बहता रहा। पीछे खडे दोनो व्यक्ति किसी गंभीर विचार विमर्श मे मशगूल थे। यह स्पष्ट था कि वे किसी लफडे में नहीं पडना चाहते थे और जल्दी से जल्दी पुलिस तक यह सूचना पहुँचाना चाहते थे। उन्होंने जुल्फिकार को वहीं रुकने के लिए कहा और आश्वस्त किया कि जल्दी ही पुलिस को लेकर लौटेंगे और उन्हें इलाज के लिए अस्पताल लेकर चलेंगे। जुल्फिकार को पता नहीं था कि थाना कहाँ है। उसने दोनो को ढाबे की तरफ वापस जाते और फिर वहाँ से एक सायकिल पर सवार होकर विपरीत दिशा में जाते हुए देखा।
वे पुलिस को लाने जा रहे थे, जुल्फिकार नासिर ने अपनी पसलियों में एक बार फिर आतंक बहता महसूस किया। अभी जिन हत्यारों के चंगुल से वह बच निकला था वे भी खाकी पहने हुए थे। खाकी वाले दूसरे क्या उनसे भिन्न होंगे? अगर वो उनके हाथ पडा तो क्या वे उसे छोड देंगे ? उसने चारों तरफ छिपने की जगहें तलाशी। पुलिया के नीचे तेज रफ्तार से पानी बह रहा था, सामने तीन चार गुमटियाँ दिख रहीं थीं और दूर-दूर तक खेत फैले हुये थे जिनमें गन्ने और चरी की फसलें दिखायी दे रहे थे। अगर छिपना था तो फौरन ही निकलना पडेगा। जख्म से खून का बहना काफी हद तक बन्द हो चुका था पर दर्द रह रह कर टीसने लगता था । उसने कमरुद्दीन को उठाने की कोशिश की। पर अब वो पूरी तरह से निढाल हो चुका था और उसे अपने ऊपर लादकर या घसीटते हुये भागना होगा। आते समय तो आरिफ भी था और दोनो मिलकर कमरुदीन की एक-एक बाहँ अपने कन्धों में डाले उसे कुछ उठाये और कुछ घसीटते हुये यहा तक लाये थे ।अब हालात एकदम भिन्न थे, वह अकेला था और जख्मों से निढाल कमरुद्दीन अब एक कदम भी चल नहीं सकता था। उसने उसे घसीटते हुये कुछ दूर तक चलने की कोशिश की लेकिन चन्द कदमों बाद ही थक कर कमरुद्दीन को लिए- दिए जमीन पर ढह पडा। दर्द से कराहते कमरुद्दीन के मुँह से एक चीख सी निकली और बमुश्किल अपनी आँखें खोलते हुये जो दो तीन वाक्य उसनें कहे उनसे यह स्पष्ट हो गया कि नीम-बेहोशी की हालत में भी जो कुछ घट रहा था उसे वह थोडा बहुत समझ रहा था। उसने टूटती आवाज में जुल्फिकार को भाग जाने के लिए कहा। उसे आभास हो गया था कि वह बच नहीं पायेगा। जुल्फिकार के लिए सोचने को बहुत कुछ नहीं था, जो कुछ कमरुद्दीन कह रहा था लगभग उसी तरह की उहा-पोह उसके मन में भी चल रही था। उसने धीरे से कमरुद्दीन का सर जमीन पर रखा , मन ही मन उसे खुदा हाफ़िज़ कहा और तेजी से मुरादनगर कस्बे की तरफ बढा। अभी वह एक किलोमीटर भी नहीं चला होगा कि उसे सामने से एक मोटर-सायकिल आते हुये दिखायी दी। उसने सडक पर चारों ओर देखा। बायीं तरफ एक पुराना शौचालय था और उसके पीछे था 220 के.वी.ए. का एक बडा बिजलीघर। जुल्फिकार ने लगभग दौडते हुये उस पेशाबघर में शरण ली। उसी समय तेज रफ्तार से सडक पर एक मोटर-सायकिल गुजरी । जुफिकार को अभी तक याद है कि वे तेज स्वरों में बात कर रहे थे और बातचीत से ऐसा लगा कि ढाबे से गये दोनो लोग किसी पुलिस वाले के साथ लौट रहे थे। अन्दर छिपे-छिपे उसने कुछ और गाडियों को तेज रफ्तार से गंग नहर की तरफ जाते सुना, लगता था थाने से पुलिस कर्मी घटनास्थल की तरफ जा रहे थे।
जब आप बरसों बाद किसी ऐसी घटना को याद कर रहें हों जो भले ही आपको मौत के मुहँ तक ले गयी हो पर उसमें से बच निकलने के बाद आप अचानक पाते हैं कि आप सेलिब्रिटी हो गये हैं तो कई बार मीडियाकर्मियों या ऐक्टिविस्टों के सामनें जो कुछ घटा उसे सुनाते समय आप कुशल किस्सागो हो जाते हैं और जाने अनजाने अपने विवरणों मे काफी कुछ अपनी कल्पना शक्ति से ज़ोडते घटाते चलते हैं ।
जुल्फिकार ने मुझे बताया कि पहले गुजरने वाली मोटरसायकिल पर बैठे लोग तेज स्वरों में बातें कर रहे थे और उनके कहे गये वाक्यों के अनुसार वे उसे मारने के लिये जा रहे थे। जब वो 24 वर्ष बाद इस वाकये को सुना रहा था तो मुझे यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी कि यह उसकी कल्पनाशक्ति की उडान ही थी। जिन पुलिसकर्मियों को उसने गंगनहर की तरफ जाते सुना था वे वही थे जो गंगनहर से तीन जीवित घायलों को निकाल कर थाना मुरादनगर लाये थे। इनमें से पहला तो कमरुद्दीन ही था जिसे ढाबों के पास जुल्फिकार छोड़ गया था | शेष दोनो मुजीबुर्रहमान और मो. उस्मान थे । लिंक रोड थाने पर बैठे 22/23 1987 की रात जब मैंने मुरादनगर थाना प्रभारी राजेन्द्र सिंह भगौर से वायरलेस पर बात की थी तब उसने इन्हीं तीनों का जिक्र किया था।यह बात अलग है कि 17 सितम्बर 2009 को अडिशनल सेशंस जज emएम. आर. सेठी के समक्ष अपने लम्बे बयान में भगौर नें जो विवरण दिए वे शब्दश: जुल्फिकार के विवरण से नहीं मिलते थे पर लम्बे अरसे के बाद अगर दो लोग एक ही घटना का अलग अलग बयान कर रहे हों तो यह स्वाभाविक है कि उनकी सूचनाओं में कुछ फर्क होगा ही |
स्पष्ट था कि जुल्फिकार मुझसे जिस संवाद का जिक्र कर रहा था वह उसकी कल्पनाशक्ति की ही उपज थी परंतु मैंने उसे टोका नहीं और बोलने दिया।
जुल्फिकार न जाने कितनी देर तक उसी पेशाबघर में छिपा रहा। रमजान का महीना था और उसने पिछले चौबीस घंटों से कुछ अधिक समय से कुछ खाया नहीं था। जिस समय पुलिस वाले उसे घर से बाहर सडक पर लाये थे वह रोज़े से था। गिरफ्तार करने वालों ने उसे रोज़ा तोडने का भी वक्त नहीं दिया। इस समय टीसते जख़्म से ज्यादा भूख से मरोडती आंतें तकलीफ दे रहीं थीं। गनीमत थी कि पेशाबघर इस्तेमाल में नहीं आता था लेकिन पुराने इस्तेमाल की बदबू तो थी ही। बीच-बीच में वह उचक-उचक कर या दांयें बांये झाँक-झाँक कर बाहर सडक पर देख लेता था। दिल्ली-गाजियाबाद से होकर मेरठ के रास्ते देहरादून जाने वाली यह सडक आम दिनों में काफी व्यस्त रहती थी और बावजूद इसके कि आगे मेरठ में कर्फ्यू लगा हुआ था सडक पर आमद-रफ्त बरकरार थी। जुल्फिकार के अंदर बैठा डर उसे किसी को भी पुकारने से रोक रहा था । दोपहर होते-होते वह लगभग निढाल हो गया । जख्मों से खून का रिसना बंद हो गया था पर जरा भी हिलने डुलने से जो टीस उठती वह कई बार असह्य हो जाती थी। एक बार तो भूख और प्यास के मारे जुल्फिकार के धैर्य ने जवाब दे दिया और वह पेशाबघर से निकल कर लगभग सडक तक आ गया पर तभी उसे मुरादनगर की तरफ से एक जीप आती हुयी दिखायी दी । यह पुलिस की गाडी थी या नहीं, निश्चित रूप से नहीं कहा सकता था लेकिन भय उसकी पसलियों को झिंझोडता हुआ अन्दर तक दौड गया। वह लडखडाता हुआ वापस पेशाबघर की तरफ भागा। इतनी भीड-भाड वाली सडक पर भी किसी ने उसकी इस भाग-दौड पर ध्यान नहीं दिया। वह काफी देर तक सुन्न सा पडा रहा पर भूख प्यास ने एक बार फिर उसे सक्रिय कर दिया। वह उचक कर पेशाब घर की बाहरी दीवार से सडक पर झाँकने लगा। सडक की दूसरी पटरी पर एक हैण्ड पंप दिखायी दिया। पंप के बगले से एक गली अंदर जाती दिखी। प्यास से उसे अपने हलक में कांटे से उगते महसूस हो रहे थे और अब तो थूक निगलने में भी कठिनाई होने लगी थी । वह हिम्मत करके पंप पर जाकर अपना गला तर करने की सोच ही रहा था कि उसे गली में कुछ ऐसा दिखा कि उसका डर काफी हद तक काफूर हो गया। सर पर गोल टोपी और ऊँचे पांयचों के पाजामों के साथ कुर्ते पहने कुछ लोग दिखायी दिये, पहले इक्का दुक्का फिर छोटे-छोटे समूहों में । जुल्फिकार को याद आया कि अस्र की नमाज़ का वक्त हो चला था और ऐसा लगता था कि जो गली दिख रही थी उसमें मुसलमानों की खासी बस्ती थी और रमज़ान में रोजेदार अस्र की नमाज़ पढने बाहर सडक पर निकल आये थे। इसका मतलब आस-पास कोई मस्जिद भी है, जुल्फिकार ने सोचा और पेशाबघर के बाहर निकल आया। भूख-प्यास और जख्म के अहसास के बावजूद उसने दौडते हुये सडक पार किया ।ऐसा लग रहा था जैसे कोई उसका पीछा कर रहा है। वह हैण्ड पंप के पास रुका , लगभग हाँफते हुये से उसने एक हाथ से हैण्ड पंप चलाने की कोशिश की और कमजोर प्रयास के बावजूद जो थोडा बहुत पानी नल से टपका उसे दूसरे हाथ के चुल्लू में रोपकर पीने की कोशिश की। पानी के चंद घूँटों ने कांटे उगे हलक में थोडी सी नर्मी पैदा की । वह तेजी के साथ गली में घुसा। उसकी बेढंगी चाल, खून और कीचड लगे कपडों और अपरिचित चेहरे में कुछ ऐसा था कि गली में चलते हुये लोग न सिर्फ ठिठक कर रुके बल्कि उन्होंने उसे घेर भी लिया । वे सभी मुसलमान थे और उनकी फुसफुसाहटों और चेहरे पर फैले भय मिश्रित उत्सुकता से यह स्पष्ट हो गया था कि नहर पर पिछली रात हुये हादसे के बारे में उन्हें उडती पुडती जानकारी है और वे जुल्फिकार से सुनकर हकीकत जानना चाहतें हैं। सडक पर भीड बढती जा रही थी और जुल्फिकार का बयान सवालों के शोरगुल में डूबता जा रहा था। तभी एक बुजुर्ग ने सलाह दी कि सडक पर भीड लगाना ठीक नहीं है। पुलिस को पता चल सकता है और जुल्फिकार वापस गिरफ्तार हो सकता है। उसे किसी के घर जाना पडेगा।
कौन ले जायेगा जुल्फिकार को अपने घर? एक सवाल था जिसने थोडी देर के लिये सबको खामोश कर दिया। एक अधेड से आदमी ने जुल्फिकार के कंधे पर थपकी दी और उसे अपने पीछे आने का इशारा किया। मुख्य सडक छोडते हुये वह उसके पीछे एक गली में घुस गया और फिर एक मकान में। जुल्फिकार को बाद में पता चला कि वह किसी अय्यूब नामक व्यक्ति के साथ था जिसका घर नहर के करीब था। उसे बदलने के लिये दूसरे कपडे दिये गये, डा. खालिद को बुलाया गया जिसने उसके जख्मो पर कुछ दवाईयाँ लगायीं और दो दिन से चल रहे रोज़े को तोडने का इंतजाम किया गया। अदालत में पहले गवाह के रूप में गवाही देते हुए जुल्फिकार ने बताया था कि उसे हकीम को दिखाया गया था। मैंने जब उसका ध्यान इस तरफ दिलाया तब उसने हँसते हुये कहा कि उसने जान बूझकर डा. खालिद का नाम नहीं लिया क्योकि वे भी कानूनी पचडे में फंस सकते थे। खाते-खाते और अयूब के परिवार के सदस्यों को फुसफुसाते हुए इस हादसे के बारे में बताते हुये 18 साल का जुल्फिकार कब सो गया उसे पता भी नहीं चला।
दूसरे दिन सुबह जब वह उठा तब तक दिन चढ आया था । उसे थोडा समय लगा सब कुछ याद करने में। रात डाक्टर ने जख्मों पर अच्छी तरह से मरहम पट्टी कर दी थी जिसके कारण दर्द का अहसास काफी कम हो गया था पर जैसे ही वह उठकर बैठा उसे अपने जख्मों से बूंद बूंद कर दर्द टपकता हुआ महसूस हुआ।बिस्तर से उतर कर गुसलखाने तक जाना पहाड़ हो गया |
अयूब के घर वाले खामोशी से चल फिर रहे थे । उन्हें फुसफुसाते हुये आपस में बात करते देखकर जुल्फिकार की समझ में आ गया कि वे डरे हुयें हैं। जाहिर था कि वे किसी लफडे में नहीं पडना चाहते थे। कल तो जोश में वे उसे घर ले आये थे पर अब यथार्थ उन्हें डरा रहा था। कस्बे में पूरी भीड के सामने जुल्फिकार उनके घर आया था और अब तो यह बात चारों तरफ फैल गयी होगी। किसी दूसरे मध्यवर्गीय परिवार की तरह वे भी पुलिस कचहरी के चक्कर में नहीं पडना चाहते थे। भिंचे चेहरों और दबे स्वरों में उन्हें बात करते देखकर जुल्फिकार का चेहरा उतर गया। वे उसे घर से बाहर तो नहीं निकाल देंगे ? या कहीं पुलिस को ही न सौंप दें ।
एक गिलास में चाय लेकर मुहम्मद अयूब उसके पास आया । जितनी देर जुल्फिकार ने चाय पी उतनी देर में मुहम्मद अयूब ने उससे जो कुछ कहा उसका आशय यह था कि उसका परिवार जुल्फिकार की सेवा करना एक दीनी कर्तव्य समझता है किंतु वे किसी पचडे में नहीं पडना चाहते। जुल्फिकार जहाँ कहेगा वह उसे वहाँ पहुंचाने की व्यवस्था कर देगा। जुल्फिकार का चेहरा उतर गया और उसे लगने लगा कि अयूब और उसका परिवार अचानक उसे उठाकर सडक पर फेंक देगा और एक बार फिर दरिन्दे उसे दबोच लेंगे। उसने कातर निगाहों से अपने मेजबान की तरफ देखा। अयूब के चेहरे पर कुछ था जिसने उसे आश्वस्त किया। वे उसे सडक पर तो नहीं फेंकेगे लेकिन उसे जल्दी ही कोई जगह तय करनी होगी जहाँ वह जाकर छिप सके और आसन्न मृत्यु से अपने को बचा सके । स्वाभाविक था कि पहला स्थान जो उसके दिमाग में आया वह हाशिमपुरा का उसका अपना घर था जहाँ के सुखद सुरक्षित माहौल में उसका बचपन बीता था और जो 22 मई 1987 के पहले हर सुख दुख में उसका साक्षी था। अयूब ने इस सम्भावना को सुनते ही खारिज कर दिया । एक तो सबेरे के अखबार में पढी खबर के मुताबिक मेरठ शहर में अभी भी कर्फ्यू लगा हुआ था और दूसरे एक सम्भावना यह भी हो सकती थी कि हत्यारे बचे हुये लोगों को अब तक तलाश रहें हों। अगली जगह जो जुल्फिकार के दिमाग में आयी वह उसके चाचा की ससुराल थी। चाचा के ससुर मेरठ से 14-15 किलोमीटर दूर बूढबराल गाँव में रहते थे।थोड़े बहस मुबाहिसे के बाद वहीं जाना तय हुआ |
अयूब ने एक मोटरसायकिल का इंतजाम किया और उसपर चालक और एक दूसरे व्यक्ति के बीच में जुल्फिकार बैठा और वे वहाँ से बूढबराल के लिए रवाना हुये। इस बीच जितनी तेजी से खून से तरबतर उसके कपडे बदले गये, उसे नाश्ता कराया गया और उसकी यात्रा के लिए मोटरसायकिल की व्यवस्था की गयी उससे यह स्पष्ट हो गया कि अयूब और उसका परिवार उसके जाने के फैसले से कितनी राहत महसूस कर रहा था और यही राहत उसे बाहर छोडने आये परिवार के सदस्यों के चेहरों पर भी नजर आ रही थी। बीच में बैठे ज़ुल्फिकार को जो बेनाप के नये कपडे दिये गये थे उनके बेढंगेपन को छिपाने के लिये उसे एक चादर उढा दी गयी थी और जब मोटरसायकिल तीन सवारों को लेकर गाजियाबाद मेरठ मुख्यमार्ग पर पहुँची तो अन्दर के भय और घबराहट ने उसे इस चादर को अपने चारों तरफ कस कर लपेट लेने के लिये प्रेरित किया और वह अपने आगे पीछे बैठे दोनो सवारों के बीच एक गठरी सा सिमट गया।
मुरादनगर से बूढबराल तक लगभग 25 -30 किलोमीटर की दूरी जैसे एक अंतहीन सफर बन गयी। अभी दिन का पहला पहर था और लोग धीरे-धीरे काम धन्धे के लिये निकलने लगे थे पर मेरठ के दंगो का असर वहां भी साफ दिखायी दे रहा था। उस कम भीड-भाड वाली सडक पर तेज रफ्तार से भागते मोटर सायकिल पर बीच में बैठे और गठरी बने जुल्फिकार की रूह किसी भी पुलिस वाले को आते–जाते देखकर काँप जाती थी। जब मोटरसायकिल सडक से दूर-दराज जाने वाले रास्ते पर मुडी तभी जाकर जुल्फिकार की जान में जान आयी । चाचा के ससुर मुहम्मद याकूब एक मझोले दर्जे के खाते पीते किसान थे और जुल्फिकार अक्सर वहाँ आता जाता रहता था- कई बार चाचा के साथ और कई बार अकेले। खास तौर से गर्मियों की छुट्टियों में जब आम की फसल तैयार हो। अगर मेरठ में इस समय दंगे न चल रहे होते तो वैसे भी वह इन दिनों यहाँ होता। इस समय अयूब के घर में किसी को उसके वहाँ होने की उम्मीद नहीं थी और परिवार के जो सदस्य उसे घर के बाहर मिले, अनहोनी की आशंका ने उनके चेहरे उतार दिये । पहला सवाल सुनते ही जुल्फिकार की रुलाई छूट गयी। वह कुछ भी बताये बिना सिर्फ रोता रहा - रोता रहा। एक लडका उसे सहारा देकर घर के अन्दर औरतों के पास ले गया । बाहर मुरादनगर से आये नौजवानों ने जितनी कुछ जानकारी उनके पास थी घर वालों से बांटी । इस बीच गांव के भी कुछ लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे और बातचीत फुसफुसाहटों और चेहरों पर तनाव में तबदील हो गयी। खास तौर से घर के मुखिया की चिंता उसकी भाव भंगिमा से साफ झलकने लगी थी। गाँव के लोग परंपरा के मुताबिक किसी भी परिवार में मेहमान के आने पर बिना बुलाये आ जाते थे , उन्हें किसी निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती थी और आज भी यही हुआ था। मोटरसायकिल पर तींन लोगों को गांव में प्रवेश करते देखकर खेतों में काम करते,गलियों से गुजरते या अपने दरवाजे पर बैठे लोगों ने उत्सुकता से उन्हें देखा और बिना किसी निमंत्रण के, दरअस्ल जिनकी कोई जरूरत भी नहीं थी उनमें से बहुत से मुहम्मद अयूब के घर पहुँच गये।
जैसे जैसे भीड बढती गयी उत्तेजित आवाजों का स्वर मंद पडता गया खास तौर से घर वालों ने तो आपस में फुसफुसाकर बात करनी शुरू कर दी। उनका भय स्वाभाविक था -- गांव में बहुत से लोग परिवार से ईर्ष्या करते थे और उनमें से कोई भी भागकर पुलिस थाने जा सकता था। पुलिस को यह पता चल जाता कि कि उन्होंने अपने घर में किसी जख्मी को छिपा रखा है तो वे कभी भी आ धमक सकते थे। एक बुजुर्ग अंदर गया और उसने जुल्फिकार को बाहर निकलने से मना कर दिया। अगले चार पांच दिन मुहम्मद अयूब के परिवार के लिये किसी यातना की तरह थे जिनमें उन्होंने जुल्फिकार और बाहरी दुनियां के बीच किसी तरह का कोई संपर्क नहीं होने दिया। जब तक जुल्फिकार वहां रहा उसे घर में फैले तनाव और भय का अहसास होता रहा। उसे दिन के उजाले में बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी वह या तो मुंह अंधेरे बाहर निकलता या फिर देर शाम दिन डूबने के बाद । घर वालों की बातचीत से यह आभास जरूर हो रहा था कि वे उसे कहीं और भेजने के लिए सुरक्षित जगह की तलाश कर रहें हैं। तीसरे दिन अभी वह सो ही रहा था कि किसी ने उसे उठाया और फौरन तैयार होने के लिए कहा। वह समझ गया कि उसे कहीं और जाना है। तब तक मृत्यु का भय कुछ कम हो गया था और जख्म भी कुछ कम दुखने लगे थे। बिना कुछ पूछे उसने तैयारी आरम्भ की और अभी जबकि बाहर अँधेरा पसरा हुआ था और गांव में लोगों ने अपनी दिनचर्या शुरू भी नहीं की थी एक मोटर सायकिल के पीछे बैठे उसकी यात्रा फिर शुरू हुयी। इस बार मोटर सायकिल उसका एक परिचित रिश्तेदार चला रहा था और गांव से बाहर निकलते ही जब वह बांयी तरफ मुडी वह समझ गया कि वे लोग गाजियाबाद उसके फूफा मेहराजुद्दीन के घर की तरफ जा रहें हैं। पिछले दो दिनों में जब छिपने के संभावित ठिकानों के बारे में चर्चा हो रही थी तो बार-बार मेहराजुद्दीन का जिक्र आता था।
पौ फटने लगी थी और तेज रफ्तार से भागती मोटरसायकिल पर बैठे जुल्फिकार को हवा में नमी का अहसास हो रहा था । उसनें जख्मों को छिपाने के लिए ओढी हुयी चादर कसकर लपेट ली और सडक पर परिचय के चिन्ह तलाशने लगा। इसी सडक पर 22/23 मई की रात पी,ए,सी. की ट्रक से वह गुजरा था | यद्यपि ट्रक के पिछले हिस्से में पी.ए.सी. वालों के पीछे उकडूँ बैठे बाहर कुछ देख पाना संभव नहीं था फिर भी आज सुबह दिखने वाला हर पेड, मकान या गली उसे परिचित से लग रहे थे। वह मिले-जुले भावों से आस-पास तेजी से भागती दुनियाँ को देख रहा था कि अचानक जैसे उसका शरीर काठ होने लगा। मोटरसायकिल जिस बिंदु पर पहुंची थी वहां से गंग नहर साफ दिखायी देने लगी थी ।
तेज रफ्तार से दौडती हुयी मोटरसायकिल जब पुल से गुजरी तो भय से अधमुंदी आंखों से नहर के बहते पानी को देख कर जुल्फिकार को लगा कि उसमें अभी भी लाशें बह रहीं हैं और कोई अपना एक हाथ पानी से बाहर निकाले उसे मदद के लिए पुकार रहा है । ढाबों के बगल से गुजरते हुये उसे घायल कमरुद्दीन याद आया । पता नहीं वह बचा या मर गया ? नहर से उसके साथ निकले आरिफ का क्या हुआ होगा ? चालक की पीठ पर लगभग सर गडाये और चादर से अपना शरीर पूरी तरह ढके जुल्फिकार ने उचाट नजरों से वह पेशाबघर देखा जहाँ उसने आधे से ज्यादा दिन बिताया था, उस गली को देखकर उसका मन कृतज्ञता से भीग गया जहाँ उसे अय्यूब के घर शरण मिली थी और जिसके कारण आज वह जिंदा था। मुरादनगर कस्बा पार करने के बाद तीस चालीस मिनट और लगे होंगे कि वे शहर गाजियाबाद के गलियों वाले पुराने हिस्से में घुस गये । आंतों की तरह फैली गलियों में वे जिस मकान के सामने रुके वह उसके फूफा मेहराजुद्दीन का था। जुल्फिकार को देखते ही घर में कोहराम मच गया। हाशिमपुरा से खबरें यहां तक पहुंच चुकीं थीं और किसी को नहीं पता था कि उठाये गये लोगों में कौन जिंदा बचा है और कौन मर गया। जुल्फिकार की बुआ ने देखते ही उसे चिपटाकर रोना शुरू कर दिया। बाहर बैठक में फूफा नें बूढबराल से आये मोटरसायकिल चालक की खातिर-बातिर शुरू की और अन्दर हिचकियों और आँसुओं के बीच हाशिमपुर गाथा टुकडों-टुकडों में सुनी-सुनायी गयी। पहुँचाने वाला वापस चला गया तो इस घर में भी पिछली पनाहगारों की तरह विचार विमर्श शुरू हुआ। फर्क सिर्फ इतना था कि घटना को घटे काफी समय हो चुका था और यह घर शहर के बीचो-बीच था जहां से जुल्फिकार को वापस पकडे जाने की संभावनायें कम थीं ।
फूफा मेहराजुद्दीन के कुछ राजनैतिक संबंध भी थे , उनमें से एक नबाबुद्दीन अंसारी एडवोकेट काफी सक्रिय थे । जब जुल्फिकार मुझे यह किस्सा सुना रहा था, मुझे याद आया कि नबाबुद्दीन अंसारी नाम के एक सज्जन गाजियाबाद में मेरी नियुक्ति के दौरान मुझसे मिला करते थे और किसी मुस्लिम राजनैतिक दल से जुडे हुये थे, संभवत: मुस्लिम लीग या मुस्लिम मजलिस से उनका संबंध था। मेहराजुद्दीन ने दूसरे दिन नबाबुद्दीन से जुल्फिकार की मुलाकात करायी। नबाबुद्दीन और मेहराजुद्दीन अगले दिन दिल्ली मोहसिना किदवई के पास गये । मोहसिना किदवई उत्तरप्रदेश की राजनीति में एक जा-पहचाना नाम थीं और उस समय मेरठ से काँग्रेस की सांसद भी थी। वे दिल्ली में 12, जनपथ पर रहा करतीं थीं । जुल्फिकार के अनुसार मोहसिना किदवई ने उनकी किसी प्रकार की मदद करने से इंकार कर दिया। 15 मई 2011 को जब मैंने सैय्यद शहाबुद्दीन से,जो उस दौरान जनतादल के सांसद थे , एक लम्बा इंटरव्यू लिया तो उसके दौरान उन्होंने मुझे बताया कि नबाबुद्दीन अंसारी और मेहराजुद्दीन को मोहसिना किदवई की कोठी में सलाह दी गयी कि वे लोग थोड़ी ही दूर पर स्थित उनकी कोठी पर जायें। वे 14 , जनपथ पर रहते थे |मेरठ से लोकसभा की सदस्या चुने जाने और खुद मुसलमान होने के बावजूद मोहसिना किदवई ने पीड़ितों की मदद करने से क्यों इनकार किया होगा ?
सैय्यद शहाबुद्दीन मुझे हमेशा से भारतीय राजनीति में एक दिलचस्प उपस्थिति लगते रहें हैं। मैंने साम्प्रदायिकता के एक जिज्ञासु अध्येता के रूप में उनके कैरियर के उतार चढाव पर बडी उत्सुकता से नजर रखी है। साम्प्रदायिकता पर आयोजित कई गोष्ठियों में मेरी उनसे छोटी-बडी बहुत सारी मुलाकातें हुयीं थीं किंतु दो लंबी मुलाकातों का जिक्, जो हाशिमपुरा के संबंध में हुयीं थीं, यहाँ पर प्रासंगिक होगा। पहली मुलाकात तो हाशिमपुरा के फौरन बाद, तारीख तो मुझे ठीक-ठीक याद नहीं पर इतना याद है कि हाशिमपुरा को घटे तीन-चार महीने ही हुये थे और अनवर जमाल मुझे उनके घर 14, जनपथ लेकर गये थे । मेरी स्मृति में अभी भी किताबों से पटा वह कमरा सुरक्षित है जो बाहर उजाले से अंदर घुसने पर मुझे एक रहस्यमय नीम अँधेरे में डूबा सा लगा था । मैं आँखें फाड-फाड कर किताबों के ढेर में छिपे गृहस्वामी को तलाश रहा था पर वहाँ अक्सर आने के कारण अनवर जमाल के सामने मेरी जैसी कोई दुविधा नहीं थी। अपनी अभ्यस्त चाल से वह उस कोने की तरफ बढे जहाँ एक छोटी सी स्टडी टेबल पर किताबों के ढेर के पीछे औसत से थोडा छोटे कद का एक शख्स खडे होने की कोशिश कर रहा था । मेज पर एक टेबल लैम्प जल रहा था और उसकी रोशनी कुछ इस कोण से पड रही थी कि उसके पीछे खडे व्यक्ति का चेहरा साफ नहीं दिखायी दे रहा था। मुझे इतना समझ में आ गया कि यही सज्जन सैय्यद शहाबुद्दीन थे और मैं अनवर जमाल का अनुसरण करते हुए उधर की तरफ बढा। शहाबुद्दीन साहब तेजी से मेज के पीछे से सामने आये और उन्होंने लपक कर मेरा आगे बढा हुआ हाथ अपने दोनों हाथो में थाम लिया। काफी देर तक वे अवरुद्ध कंठ से भावुक स्वरों में कुछ बुदबुदाते रहे | मुझे इस भावुकता की आशा नहीं थी अत: मैं कुछ असहज हो गया । हाशिमपुरा की घटना की जानकारी उन तक पहुँच चुकी थी और वे बार-बार मुझे धन्यवाद देने की कोशिश कर रहे थे। कुछ समय उन्हें सामान्य होने मे लगा और फिर उस दोपहरी हम तीनों ने बैठकर कई घंटे तक हाशिमपुरा के बहानें देश में बढ रही साप्रदायिकता के कारणों पर विचार विमर्श किया।
मैंने ऊपर लिखा है कि सैय्यद शहाबुद्दीन मुझे हमेशा से भारतीय राजनीति में एक दिलचस्प उपस्थिति की तरह लगते रहें हैं और उस पहली लम्बी मुलाक़ात में भी मैं पूरी दिलचस्पी से उन्हें बोलता हुआ सुनता रहा तथा उनके व्यक्तित्व का अध्ययन करता रहा। तब तक मेरी धारणा थी कि वे एक कट्टरपंथी राजनीति का प्रतिनिधित्व करतें हैं और भारतीय मुसलमानों में , कमजोर ही सही, जो प्रगतिशील धारा है उसके विरोधी हैं। उस दोपहर उनसे बात करते हुये मेरी समझ कई मामलों में गडबडाई ।वे कोई ऊंचे पांयचे वाला पाजामा पहने गोल टोपी से आधी खोपडी ढके या बिना मूंछों और लम्बी दाढी फहराने वाले मौलाना नहीं थे बल्कि पैंट शर्ट पहने सफाचट चेहरे वाले एक आधुनिक अधेड लग रहे थे | बहुत नफ़ीस उर्दू और असाधारण अधिकार वाली अँग्रेजी में रुक-रुक कर और पूरी तार्किकता के साथ अपनी बात कहता हुआ यह शख्स कई बार ईमानदारी के साथ धर्मनिरपेक्षता में यकीन करता राजनेता नजर आता था तो कई बार धर्म और राजनीति में घाल मेल करता एक चालाक और अवसरवादी कठमुल्ला। पर उस दोपहर लम्बी बातचीत में बहुत सारे विषयों पर बातचीत करते हुये सैयद शहाबुद्दीन ने मुझे इस मामले की एक महत्वपूर्ण बात नहीं बतलायी जिसके बारे में मुझे वर्षों बाद जुल्फिकार नासिर ने बताया और जिसकी ताईद सैयद शहाबुद्दीन ने दिनांक 15 मई 2011 को दूसरी लम्बी बातचीत में की।
मोहसिना किदवई के घर से निराश होकर नबाबुद्दीन अंसारी और मेहराजुद्दीन सीधे सैय्यद शहाबुद्दीन की कोठी में गये । शहाबुद्दीन ने धैर्य से उनकी बात सुनी और फौरन जुल्फिकार नासिर को अपने घर लाने के लिए कहा। दूसरे दिन वे जुल्फिकार को लेकर उनकी कोठी पर पहुँच भी गये। सैय्यद शहाबुद्दीन की कोठी पर हुआ स्वागत मोहसिना किदवई के घर से पूरी तरह भिन्न था। जुल्फिकार को न सिर्फ घर में रहने और खाने का निमंत्रण दिया गया बल्कि अगले दस दिनों तक सैय्यद शहाबुद्दीन की डाक्टर बेटी ने इलाज भी किया । संभवत: पहली बैठक में सैय्यद शहाबुद्दीन के मन में मुझे लेकर कुछ संकोच रहें हों और उन्हें लगा हो कि बावजूद अपनी सारी सदाशयता के मैं था तो पुलिस वाला ही और मुझे यह बताकर कि घायल जुल्फिकार उनके घर में शरण लिए हुये था वे या जुल्फिकार किसी परेशानी में फंस सकते थे। मेरी 15 मई 2011 की मुलाकात के दौरान शहाबुद्दीन ने न सिर्फ गर्व मिश्रित संतोष के साथ यह बताया कि किस तरह मोहसिना किदवई परेशान हाल पहुँचे मेरठ के मुसलमानो को अपने घर शरण देने से इंकार कर देती थीं और उन्हीं की कोठी में मौजूद नेता ऐसे लोगों को धीरे से थोड़ी ही दूरी पर स्थित सैय्यद शहाबुद्दीन की कोठी में जाने की सलाह देते थे और ऐसे मजलूमों को उनके यहां शरण मिलती भी थी। उन्होंने एक संतुष्ट पिता की तरह अपनी कामयाब डाक्टर बेटी द्वारा जुल्फिकार नासिर की की गयी सेवा का भी जिक्र किया।
पहले दिन शहाबुद्दीन के घर जुल्फिकार नासिर की न सिर्फ मरहम पट्टी की गयी बल्कि 22 मई के बाद पहली बार अच्छे खाने और आरामदेह बिस्तर पर बिना किसी भय और चिंता के वह निश्चिंत सोया। उसे पता भी नहीं चला कि इस बीच सैय्यद शहाबुद्दीन ने देश के तमाम महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञो से संपर्क साधकर अगली रणनीति बना ली थी। दूसरे दिन वह जिन लोगों के पास ले जाया गया उनके नाम उसे बहुत बाद में पता चले। आज जब वह सुब्रमणह्यम स्वामी और चंद्रशेखर का नाम लेता है तो उसके चेहरे पर वही झेपी सी मुस्कान दिखायी देती है जिसे आप किसी भी मध्यम वर्गीय भारतीय चेहरे पर ऐसी किसी घटना का बयान करते समय देख सकतें हैं जिसमें उसकी मुलाकात किसी बडे राजनेता, फिल्म स्टार या क्रिकेट खिलाडी से हुयी हो। इन्हीं मुलाकातों का परिणाम था घटना के नौ दिन बाद 1 जून 1987 को अपरान्ह में जनता पार्टी के दफ्तर में जुल्फिकार नासिर के जीवन की पहली प्रेस कांफ्रेंस जिसमें कैमरों की तेज चमकती फ्लैशलाइटों के बीच उसने वह लोमहर्षक घटना बयान की जो 22 मई को हाशिमपुरा से शुरू हुई और जिसकी खूनी परिणति मुरादनगर और मकनपुर में नहरों के किनारे हुयी थी। अगर यह प्रेस कांफ्रेंस किसी दूसरे सभ्य राष्ट्र में हुयी होती तो न जाने कितने सर कटे होते और सरकारें गिर जातीं पर आजादी के बाद की सबसे बडी कस्टोडियल किलिंग पर हमारे देश में कुछ भी ऐसा नही हुआ। राष्ट्रीय और प्रादेशिक अखबारों ने अंदर के पृष्ठों पर इसे थोडी बहुत जगह जरूर दी लेकिन सरकारी हलकों में कुछ खास घटा हो इसके प्रमाण नहीं मिलते।
प्रेस कांफ्रेंस के बाद सरकारी प्रतिक्रिया का सबसे मजेदार उदाहरण वह जवाबी प्रेस कांफ्रेंस है जिसमें मेरठ के जिला मजिस्ट्रेट आर.एस.कौशिक और वहां के पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक वी.के.बी..नायर और नवनियुक्त वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक गिरधारी लाल शर्मा मौजूद थे । नौकर शाही की बेशर्म परंपरा के मुताबिक उन्होंने सिरे से जुल्फिकार नासिर को झूठा करार देते हुये यह दावा किया कि इस नाम का कोई व्यक्ति हाशिमपुरा में रहता ही नहीं और यह कि 22 मई को हाशिमपुरा से गिरफ्तार किये गये सभी लोग जेलों में थे और उन्होंने यह भी चुनौती दी कि कोई भी व्यक्ति थानों और जेलों के दस्तावेजों को जाँच कर इसकी पुष्टि कर सकता है। क्या मेरठ के हाकिमों की यह दम्भ केवल उनकी नालायकी का द्योतक था या इसके पीछे एक खास तरह की मानसिकता भी थी जिसका मैं आगे जिक्र करूँगा।
इसके बाद की जुल्फिकार नासिर की कथा सैयद शहाबुद्दीन की मदद से जामिया मिल्लिया इस्लामिया से एक टेक्निकल कोर्स की डिग्री लेकर जीवन में एक एक सफल कारोबारी बनने की तो है ही पर हमारे लिये इससे ज्यादा महत्वपूर्ण वह भूमिका है जो उसने मौलाना यामीन,इकबाल अंसारी,रामपाल सिंह या वृंदा ग्रोवर जैसे एक्टिविस्टों के साथ मिलकर निभाई है और जिसकी वजह से हाशिमपुरा का मामला बस्ता खामोशी में दफ्न नही हो पाया और आज भी ज़िंदा है | इस किताब के लिये यही भूमिका अर्थवान है |