Friday, December 13, 2013

दंगा कराने वालों को सजा देना जरूरी- 13 दिसंबर 2013

   
                  
 कुछ वर्षों पहले जब मैं एक फेलोशिप पर सांप्रदायिक दंगों के दौरान भारतीय पुलिस की निष्पक्षता की अवधारणा पर काम कर रहा था ,  दो तथ्यों ने विशेष रूप से मेरा ध्यान आकर्षित किया था। सबसे पहले तो इस सच्चाई से  मेरा साबका पड़ा कि गंभीर से गंभीर सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में भी कानून और व्यवस्था के रखवालों को लगभग न के बराबर दण्डित किया गया था। अहमदाबाद (1969 और 2002) सिक्ख विरोधी दंगे (1984) या बाबरी मस्जिद का ध्वंस और उसके बाद के दंगों (1992 ‌‌,1993) जैसे गंभीर मामलों में भी जहाँ न सिर्फ राज्य की मशीनरी पूरी तरह से असफल हो गयी थी बल्कि कई मामलों में तो इस मशीनरी को बलवाईयों का सक्रिय समर्थन करते हुये देखा गया, उनमें भी किसी दण्डित अधिकारी को चिन्हित कर पाना बहुत मुश्किल था। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा था हिंसा के दौरान हुयी जान माल की की क्षति के लिये राज्य द्वारा दी जाने वाली मुआवजा राशि में पूरी तरह से अराजक विवेक की उपस्थिति ।इन दोनों स्थितियों के लिये  मुख्य रूप से जिम्मेदार भारतीय कानूनों में किसी तरह के अंतर्निहित सांस्थानिक प्राविधानों का अभाव है।
  सांप्रदायिक हिंसा के विरूद्ध प्रस्तावित बिल इन्हीं दोनों मुद्दों को ध्यान में रखकर बनाया गया है।
अपने अध्ययन के दौरान मेरा साक्षात्कार एक बहुत ही बेचैन कर देने वाली सच्चाई से हुआ था और उसी के संदर्भ में मुझे लगता है कि यह बिल सबसे महत्वपूर्ण है। 1961 में आजादी के बाद पहला बड़ा सांप्रदायिक दंगा जबलपुर में हुआ और उसमें एक ऐसा पैटर्न उभरकर सामने आया जो दुर्भाग्य से बाद के लगभग सभी बड़े दंगों में बार‌ बार दिखायी पड़ता है। इन दंगों में मरने वालों की संख्या पर अगर हम दृष्टि डालें तो लगभग हर जगह एक ही कहानी दोहरायी गयी दिखायी देती है। मरने वालों में न सिर्फ मुसलमानों की संख्या अधिक होती है बल्कि ज्यादातर में तो तीन चौथायी से अधिक वही होते हैं। गिरफ्तारियाँ , तलाशियाँ या निरोधात्मक  कार्यवाहियों जैसी राज्य की प्रतिक्रिया भी अमूमन मुसलमानों के खिलाफ ही होती है । मैंने आजादी के बाद हुये बड़े दंगों में राज्य की असफलता के लिये जिम्मेदार पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों के विरुद्ध की जाने वाली कार्यवाहियों को खंगालने की कोशिश की तो मुझे आमतौर से निराशा ही हाथ लगी। ज्यादातर मामलों में किसी भी अधिकारी को दण्डित नहीं किया गया था और अगर दण्ड दिया भी गया था तो वह महज लीपापोती या खानापूरी ही था। मसलन किसी अधिकारी का स्थानांतरण कर दिया गया और कुछ दिनो बाद उसे वापस महत्वपूर्ण तैनाती दे दी गयी और कई मामलों में तो आपराधिक रूप से असफल अधिकारी/ कर्मचारी वापस उसी स्थान पर नियुक्त कर दिये गये ।कुछ को निलम्बित किया गया और थोड़ा समय बीतने के बाद जब मामला ठंड़ा पड़ गया  तो उन्हे बहाल कर दिया गया ।1984 के सिक्ख नरसंहार जैसे कई मामलों में जहाँ जांच कमीशनों नें दोषी अधिकारियों को चिन्हित भी किया, किसी को दण्डित नही किया गया ।  इस प्रस्तावित बिल में सांप्रदायिक हिंसा के दौरान आपराधिक लापरवाही दिखाने वाले कर्मियों को दण्डित करने का सांस्थानिक प्रयास किया गया है।   
  राज्य का यह सबसे महत्वपूर्ण दायित्व है कि वह अपने सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के जानमाल की सुरक्षा प्रदान करे। इस महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व को निभाने में असफल रहने पर उसे पीड़ितों को पर्याप्त एवं उचित मुआवजा देना चाहिये। दुनिया भर में सभी सभ्य सरकारें ऐसा ही करतीं हैं। भारत में कोई कानूनी बाध्यता न होने के कारण अदालतें और राज्यों के मुख्यमंत्री  अपने विवेक के अनुसार मुआवजे की राशि निर्धारित करतें हैं और यह हजारों से लेकर लाखों तक में हो सकती है । कई ममलों में तो निर्धारण पीड़ित  की जाति या धर्म को ध्यान में रखकर किया जाता है।  प्रस्तावित बिल में पहली बार एक ऐसा सांस्थानिक प्रयास किया जा रहा है जिसके तहत हर पीड़ित को मुआवजा देना राज्य के लिये अनिवार्य होगा। मुझे लगता है कि यह बिल यदि कानून बना और इसे ईमानदारी से लागू किया गया तो यह आजादी के बाद बने सबसे महत्वपूर्ण कानूनों में से एक होगा।
  इस बिल के कानून बन जाने के बाद देश से सांप्रदायिकता की समस्या समूल नष्ट हो जायेगी ऐसा सोचना अति सरलीकरण का शिकार होना होगा।मुझे याद है कि एक गोष्ठी में जिसमे कुछ वर्षों पूर्व इस बिल के स्वरूप पर विचार हो रहा था, अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया था।उनके अनुसार सांप्रदायिक दंगों के दौरान होने वाली हिंसा से उत्पन्न सभी अपराधों से निपटनें के लिये वर्तमान भारतीय कानूनों में पर्याप्त प्राविधान हैं। समस्या यह है कि इन कानूनों को लागू करने  और इनके अनुरूप दोषियों को दंडित करने के लिये राज्य में पर्याप्त इच्छा शक्ति का अभाव है। यदि नया कानून बनने के बाद भी राजनैतिक नेतृत्व उसे लागू करने में दिलचस्पी न दिखाये तो क्या किया जा सकता है? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है और इसका समाधान तभी हो सकता है जब इस कानून में सरकारी अधिकारियों के अतिरिक्त उस राजनैतिक नेतृत्व की भी जिम्मेदारी निर्धारित की जाय जिसे सांप्रदायिक हिंसा के दौरान निर्णायक फैसले लेने होतें हैं। उदाहरणार्थ यदि जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक को दंड़ित किया जा सकता है तो यह अपेक्षा  भी उचित है कि सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में असफल मुख्यमंत्रियों और गृहमंत्रियों का भी दायित्व निर्धारित किया जाना चाहिये।
  प्रस्तावित कानून में कई प्राविधान ऐसे हैं जो भारत के संघीय ढांचे में परिकल्पित केंद्र-राज्य सम्बंधों के संतुलन को बिगाड़ सकतें हैं। ऐसा संभवत: इसलिये किया गया है कि यदि कोई राज्य सरकार कानून व्यवस्था के अपने बुनियादी फर्ज को नहीं निभा पाती है तो केंद्र को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार होना चाहिये। पर 2002 में गुजरात में हुये नरसंहार के दौरान तो राज्य और केंद्र में एक ही दल की सरकार थी। भविष्य में यदि यह कानून अस्तित्व में आ भी गया तब भी यदि 2002 के गुजरात वाली में क्या होगा , कह पाना मुश्किल है ।राजनैतिक इच्छा शक्ति का महत्व तो हमेशा बना रहेगा पर इतना तो हो ही जायेगा कि कानून बनने के बाद पीड़ित मुआवजे के लिये अथवा आपराधिक लापरवाही के दोषियों को दण्ड़ित कराने के लिये अदालत की  शरण ले सकते हैं । 


                               विभूति नारायण राय

2 comments:

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