Tuesday, January 26, 2010

Sunday, January 24, 2010

यह केवल उत्सवधर्मी विश्विविद्यालय नहीं रहेगा- विभूति नारायण राय

Wednesday, November 04, 2009

पिछले दिनों हिन्द-युग्म के रामजी यादव और शैलेश भारतवासी ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय से बात की। विभूति नारायण राय हिन्दी के चर्चित लेखक और साहित्यकार हैं जिनकी दंगों के दौरान पुलिस के सांप्रदायिक रवैये पर लिखी पुस्तक 'शहर में कर्फ़्यू' बहुत प्रसिद्ध रही। विभूति उ॰ प्र॰ में पुलिस महानिदेशक के पद पर कार्य कर चुके हैं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय हिन्दी भाषा को समर्पित दुनिया का एक मात्र विश्वविद्यालय है। तो हमने जानने की कोशिश की कि हिन्दी भाषा-साहित्य की गाड़ी में गति लाने के लिए इनका विश्वविद्यालय क्या कुछ करने जा रहा है॰॰॰॰॰
रामजी यादव- महात्मा गाँधी अंतरर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना लगभग 10-12 वर्ष पहले हुई थी। पूरी दुनिया में फैला हुआ जो हिन्दी समाज है, उसके प्रति हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए यह उत्तरदायी है। लेकिन यह एक उत्सवधर्मी विश्वविद्यालय के रूप में विख्यात है। और लगभग इसकी उत्सवधर्मिता इसके कुलपति की महात्वकांक्षाओं तक सीमित करके देखी जाती है। इस पूरी छवि को आप कैसे बदलेंगे?

वी एन राय- विश्वविद्यालय केवल उत्सवधर्मिता का केन्द्र न रहे, बल्कि गंभीर अध्ययन और शोध का क्षेत्र भी बने, और इसके साथ-साथ इस विश्वविद्यालय की हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में ज़रूरी उपकरण प्रदान करने की जो इसकी खास भूमिका है, उसे पूरा करने में भी इसका सक्रिय योगदान हो, इस समय दिशा में यह विश्वविद्यालय काम कर रहा है। इस वर्ष नये विभाग खुले हैं। मानवशास्त्र और फिल्म-थिएटर दो विभाग शुरू किये गये हैं। इसके अलावा डायस्पोरा स्ट्डीज का नया विभाग शुरू होने वाला है। ये तीनों नये विभाग महात्मा गाँधी अंतरर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की उस भूमिका को निभाने में भी मदद करेंगे, जिसकी कल्पना इस विश्ववविद्यालय के एक्ट में की गई है और प्रथम अंतरर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में इसकी निर्मिती के पीछे जो एक परिकल्पना रही है। इसे अंतरर्राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए, शायद आप अवगत हों, विश्वविद्यालय एक बहुत महात्वपकांक्षी योजना पर काम कर रहा है वो है कि हिन्दी में जो कुछ भी बहुत महत्वपूर्ण है, उसे ऑनलाइन किया जाये ताकि दुनिया के कोने-कोने में बैठे हिन्दी के पठक उन्हें पढ़ सके। हमारी कोशिश है कि दिसम्बर 2009 तक लगभग 100000 पृष्ठ ऑनलाइन कर दिये जायें। इसके अलावा हम इन सभी महत्वपूर्ण कृतियों को दुनिया की तमाम भाषाओं में जैसे चीनी, जापानी, अरबी, फ्रेंच इत्यादि में अनुवाद करके ऑनलाइन करना चाहते हैं।

रामजी यादव- एक चीज़ मानी जाती है कि हिन्दी एक बड़ी भाषा है जो तमाम तरह के संघर्षों से निकली है। लेकिन हिन्दी में विचारों की स्थिति बहुत दयनीय है। एक विश्वविद्यालय के रूप में आपका विश्वविद्यालय किस तरह का प्रयास कर रहा है कि हिन्दी में विचार मौलिक पैदा हों और दुनिया के दूसरे अनुशासनों से इनका संबंध बने?

वी एन राय- इसके लिए भी हमने कुछ महात्वकांक्षी योजनाएँ बनाई है। हमारे विश्वविद्यालय का जो पाठ्यक्रम है वो गैरपारम्परिक पाठ्यक्रम हैं। जो विषय हमारे यहाँ पढ़ाये जा रहे हैं वह भारत के बहुत कम विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जाते हैं। जैसे स्त्री-अध्ययन है, शांति और अहिंसा है, हिन्दी माध्यम में मानव-शास्त्र है, फिल्म और थिएटर या डायस्पोरा स्ट्डीज की पढ़ाई है। अनुवाद भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें हमारे यहाँ पढ़ाई हो रही है। लेकिन ज्ञान के इन अनुशासनों में मौलिक पुस्तकों की कमी है, मौलिक तो छोड़ दीजिए जो एक आधार बन सकती हों, ऐसे पाठ्यपुस्तकों की कमी है। इसलिए हमने योजना बनाई है कि हम ज्ञान के इन सारे अनुशासनों में जो कुछ भी महत्वपूर्ण अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में उपलब्ध है, उसके कुछ चुनिंदा अंशों का अनुवाद हो और उसे छापें। और यह योजना शुरू भी हो गई है, हमने स्त्री-अध्ययन के लिए 10 पुस्तकों को चुना है जिसका साल भर में हम अनुवाद करा लेंगे। इसके बाद अन्य अनुशासनों में जायेंगे।

शैलेश भारतवासी- सवाल हमारा यह था कि जो हिन्दी का साहित्यिक या वैचारिक परिदृश्य हैं, वो पूर्णतया मौलिक नहीं है। विश्वविद्यालय की तरफ से ऐस कोई प्रयास है जिससे मौलिक विचार निकलकर आये?

उत्तर- मौलिक लेखन को भी हम प्रोत्साहन देंगे, लेकिन सवाल यह है कि मौलिक लेखन के लिए भी आधारभूत सामग्री उपलब्ध हो, जिन्हें पढ़कर आप अपनी बेसिक तैयारी कर सकें। दुर्भाग्य से गंभीर समाज शास्त्रीय विषयों पर हिन्दी में मौलिक सामग्री या तो बहुत कम है या ज्यादातर अनुवाद के माध्यम से मिल रही है। पर हमारा प्रयास यह होगा कि जब हम महत्वपूर्ण चीज़ों का अनुवाद करायेंगे तो निश्चित रूप से उन्हें पढ़कर जो मौलिक सोचने वाले हैं, वे मौलिक लेखन करेंगे और उन्हें भी हम प्रकाशित करेंगे।

रामजी यादव- क्या दुनिया के अन्य देशों के विश्ववद्यालयों में जहाँ प्राच्य विद्या किसी न किसी रूप में पढ़ाई जाती है, उनके साथ विश्वविद्यालय का कोई अंतर्संबंध बन रहा है?

वी एन राय- जी, हम यह कोशिश कर रहे हैं कि बाहर के 100 विश्वविद्यालयों में जहाँ हिन्दी किसी न किसी रूप में पढ़ाई जाती है, भाषा के तौर पर, प्राच्य विद्या का एक अंग होकर या साउथ-एशिया पर विभाग हैं, उनमें हिन्दी का इनपुट है, इन सभी विश्वविद्यालयों के बीच में हम एक समन्वय सेतु का काम करें, उनमें जो अध्यापक हिन्दी पढ़ा रहे हैं, उनके लिए रिफ्रेशर कोर्सेस यहाँ पर हम संचालित करें, उनके लिए ज़रूरी पाठ्य-सामग्री का निर्माण करायें और सबसे बड़ी चीज़ है कि विदेशों से बहुत सारे लोग जो हिन्दी सीखने के लिए भारत आना चाहते हैं, उनके लिए हमारा विश्ववद्यालय एक बड़े केन्द्र की तरह काम करें, इस दिशा में भी काम चल रहा है।

शैलेश भारतवासी- जहाँ एक ओर आप विदेशी विश्वविद्यालयों से अंतर्संबंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं,वहीं अपने ही देश के बहुत से लोग जो हिन्दी भाषा या साहित्य में ही अपनी पढ़ाई कर चुके हैं या कर रहे हैं, उन्हें भी आपके विश्वविद्यालय के बारे में पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए भी इस विश्वविद्यालय का नाम एक नई चीज़ है। तो क्या आप चाहते ही नहीं कि सभी लोगों तक इसकी जानकारी पहुँचेया कोई और बात है?

वी एन राय- नहीं-नहीं, आपकी बात सही है। विश्वविद्यालय को बने 11 साल से ज्यादा हो गये, लेकिन दुर्भाग्य से बहुत बड़ा हिन्दी समाज इससे परिचित नहीं है, या उसका बहुत रागात्मक संबंध नहीं बन पाया या कोई फ्रुटफुल इंटरेक्शन नहीं हो पाया। ऐसा नहीं है कि हम नहीं चाहते, और हम इसके लिए हम प्रयास भी कर रहे हैं। मसलन हमारी वेबसाइट ही देखिए। हालाँकि हिन्दी-समाज बहुत तकनीकी समाज नहीं है, बहुत कम लोग हिन्दी वेबसाइट देखते हैं। लेकिन मुझे देखकर बहुत खुशी होती है कि हमारी वेबसाइट को रोज़ाना 150-200 लोग आते हैं और वो भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आते हैं। तो ऐसा नहीं है, धीरे-धीरे लोगों ने इसे जानना शुरू किया है।

शैलेश भारतवासी- लेकिन यहीं पर मैं रोकूँगा, आपने कहाँ कि आप 150-200 लोगों से संतुष्ट हैं (कुलपति ने यहीं रोककर इंकार किया), मेरा कहना है कि आपको 150 विजिटरों से आशा की एक किरण नज़र आती है। मैं एक साहित्यिक-सांस्कृतिक वेबसाइट चलाता हूँ, जिसे रोज़ाना 10,000 हिट्स मिलते हैं (यह दुनिया भर की वेबसाइटों के एस्टीमेटेड हिट्स निकालने वाली वेबसाइट का आँकड़ा है), फिर भी मैं संतुष्ट नहीं हूँ और इसे एक बहुत छोटी संख्या मानता हूँ। आपकी वेबसाइट पर मैं 2-3 बार गया भी हूँ। मेरा जो अनुभव है वह कहता है कि इसमें जो तकनीक इस्तेमाल की जा रही है वह बहुत प्रयोक्ता-मित्र नहीं है, वह समय के साथ नहीं चल रही है। क्या इस दिशा में कोई परिवर्तन हो रहा है?

वी एन राय- पिछले 5-6 महीनों में जो परिवर्तन हुए हैं, उसमें दो महत्वपूर्ण योजनाओं को शामिल किया जा रहा है। एक तो मैंने पहले भी बताया कि हिन्दी के महत्वपूर्ण लेखन के 1 लाख पृष्ठ ऑनलाइन किये जायेंगे और हिन्दी के जो समकालीन रचनाकार हैं, लेखक है, उनकी प्रोफाइल, इनके पते वेबसाइट पर डाल रहे हैं ताकि दुनिया भर में फैले इनके प्रसंशक, इनके पाठक, प्रकाशक इनसे संपर्क कर सकें। तकनीक के स्तर पर भी हम परिवर्तन करने की कोशिश कर रहे हैं। हमारा विश्वविद्यालय कोई तकनीकी विश्वविद्यालय तो है नहीं, फिर भी हम सीख करके, दूसरों की सहायता लेकर अच्छा करने की कोशिश कर रहे हैं।

रामजी यादव- भारत में एक बहुत बड़ा क्षेत्र है, जिसमें गैर हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी का विकास हो रहा है, जिससे नये तरह के डायलेक्ट्स बन रहे हैं, भाषा जिस तरह से बन रही है, बाज़ार दूसरी तरह से इन चीज़ों को विकसित कर रहा है। इस पूरी पद्धति में भाषा का विश्वविद्यालय होने की वजह से, विश्वविद्यालय किस रूप से देशज और भदेस को मुख्यधारा का विषय बना सकता है?

वी एन राय- इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी की बोलियाँ हिन्दी के लिए खाद हैं। आज हम जिसे हिन्दी भाषा कह रहे हैं, वह भी एक समय बोली थी। खड़ी बोली। जब आप 'हिन्दी' शब्द का उच्चारण करते हैं तो 'खड़ी बोली' दिमाग में आती है। आज से 130 साल पहले भारतेन्दु तक यह नहीं मानते थे कि 'खड़ी बोली' में कविता भी लिखी जा सकती है। गद्य की भाषा तो 'खड़ी बोली' थी, लेकिन पद्य की भाषा ब्रजभाषा रखते थे भारतेन्दु। छायावाद आते-आते लगभग यह स्पष्ट हुआ कि 'खड़ी बोली' ही 'हिन्दी' होगी। और एक मानकीकरण शुरू हुआ। 30-40 साल बहुत संघर्ष चला। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी होगी, उर्दू, अरबी-फ़ारसी के शब्दों के साथ हम कैसा व्यवहार करेंगे, कैसे हम इस भाषा को पूरे देश के लिए एक मानक और एक स्वीकार्य भाषा बना पायेंगे, यह सारे संघर्ष चलते-चलते कमोबेश यह तय हो गया है कि 'खड़ी बोली' ही हिन्दी होगी और सभी बोलियाँ इसे मदद करेंगी, खाद का काम करेंगी। लेकिन दुर्भाग्य से एक दूसरी प्रवृत्ति दिखलाई दे रही है, जो मेरे हिसाब से खतरनाक है। बहुत सारी बोलियाँ इस छटपटाहट में हैं कि वो हिन्दी को रिप्लेस करके एक स्वतंत्र भाषा जैसी स्थिति हासिल करें। विश्व भोजपुरी सम्मेलन में भाग लेने अभी मैं मॉरिशस गया था,, वहाँ भी बहुत सारे लोग अतिरिक्त उत्साह में यह कह रहे थे कि हिन्दी क्या है, हमारी राष्ट्रभाषा तो भोजपुरी है, मातृभाषा भोजपुरी है। अभी कुछ महीने पहले छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही हुआ कि वहाँ के एक बड़े कार्यक्रम में जब एक राजनेता हिन्दी में बोलने लगे तो जनता में से कुछ लोग कहने लगे ये कौन सी भाषा इस्तेमाल कर रहे हो, छत्तीसगढ़ी हमारी राजभाषा है। यह एक डिवाइसिव, फूट डालने वाली स्थिति है, जिससे हमें बचना होगा। मतलब हमें यह ध्यान रखना होगा कि ये बोलियाँ हिन्दी के लिए खाद भी बनें और हिन्दी का नुकसान भी न करें। हमारा विश्वविद्यालय चूँकि हिन्दी का अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है, इसलिए इस दिशा में निश्चित ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। हमलोग फरवरी-मार्च में बोलियों को लेकर एक सम्मेलन करने जा रहे हैं। हिन्दी का लोक बहुत समृद्ध है, कई अर्थों में बहुत प्रगतिशील है। अगर आप देखें तो पूरी दुनिया में इतनी विविधता लिए हुए लोक दिखलाई नहीं देगा। हमें इस प्रवृत्ति पर नज़र रखनी पड़ेगी कि वो लोक आगे जाकर नुकसान न करे, यह खाद का काम करे न कि विषबेन बन जाय।

शैलेश भारतवासी- यह तो हमारी बोलियों की बात है। दक्षिण भारतीय जो गैर हिन्दी भाषी हैं, हालाँकि हिन्दी को वे सम्पूर्ण भारत की भाषा के तौर पर देखते हैं, लेकिन उनकी शिकायत रहती है कि हिन्दी हमारी राजभाषा है, चलो हम इसे सीख लेते हैं, लेकिन हिन्दीभाषी हमारी भाषा को नहीं सीखते। क्या विश्वविद्यालय कोई इस तरह का कार्यक्रम चलाया रहा है जिससे गैरहिन्दी भाषा को सीखने पर प्रोत्साहन मिले?

वी एन राय- देखिए यह तो सरकारी स्तर पर ही हो सकता है। यह बात आपने बिल्कुल सही कही कि त्रिभाषा कार्यक्रम को लेकर सबसे अधिक बेईमानी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही हुई। हम यह तो चाहते थे कि जो अहिन्दी भाषी क्षेत्र हैं, वहाँ तो शुरू से बच्चे हिन्दी पढ़े, लेकिन जब हमारे यहाँ तीसरी भाषा की बात आई तो हमने संस्कृत को डाल दिया जो किसी भी जनसमूह की भाषा नहीं थी। हमें कोई जीवित भाषा सीखनी चाहिए थी। लेकिन विश्वविद्यालय का तो बहुत सीमित दायरा होता है। हम तो सरकार से बस अपील कर सकते हैं।

Media should introspect to give right direction to the Society

November 16, 2009



A Seminar on 'Changing Face of Indian Media' was organized here today to mark the National Press Day Celebrations by the Information and Public Relations Department. Shri Vibhuti Narayan Rai, Vice Chancellor, International Mahatma Gandhi Hindi University Wardha and Shri Ramesh Vinayak, Resident Editor, Hindustan Times were main speakers on the occasion.

Speaking on the occasion Shri Vibhuti Narayan Rai said that media should adopt self control and self discipline in order to perform its duties more efficiently and diligently. He said that in the past two decades, the ethics and values of the society had changed considerably and media could play an important role in upholding the meaningful traditions.

Shri Rai said that some times media sensationalize issues which was harmful for the society as a whole. It should be responsive to the Society. There should be a self imposed Code of Conduct in the larger interest of the society. He said that censorship is harmful for the freedom of Press and media should not create a situation in which censorship become inevitable. He said that self imposed code of regulation is the need of the hour and any body violating it should be dealt with stringently by the fraternity itself.

Shri Rai said that in the changed scenario the newspapers had become a commodity and brand which was unfortunate. He said that more importance was being given for business side in the media how it can maintain freedom in such a situation.

Shri Vibhuti Narayan said that media should take an introspection and think where it was going and some body will have to come forward to take it in right direction.

He also lauded the media for exposing various scandals and added that it was due to the media that various wrongs had been set right.