Thursday, November 20, 2008

हमारे बीच से ही उभरेगा नेतृत्व


विभूति नारायण, कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि

हम देख सकते हैं कि हिंदी पट्टी में पिछले दो दशकों में जीवन बहुत तेजी से बदला है. खास तौर से यह बदलाव जाति और लैंगिक असमानताओं से जुड़ा हुआ है. 1967 के आसपास 1967 के आस पास हिन्दी पट्टी में पिछडी जातियों का जबरदस्त उभार दिखाई देता है .कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह जैसे नेतृत्व में इस उभार नें उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश , राजस्थान, हरियाणा हर जगह कांग्रेस के वर्चस्व को झटका दिया. जाट, अहिर, कुर्मी, गूजर जैसी जातियों का पावर स्ट्रक्चर में भागीदारी हासिल करने का प्रयास था.
लेकिन एक दिक्कत पूरे इस बदलाव के बीच में नजर आती है. वह यह कि ये पिछडी ज़ातियां अपने से पिछड़ी जातियों यानी दलित जातियों को वह स्थान देने को तैयार नहीं थीं, जो वह अपने लिए चाहती हैं. इसके डेढ़ दशक बाद 1990 के आसपास के चुनावों को देखें तो पता चलता है कि दलित जातियां को यह समझ् में आने लगा था कि वह भी अपनी संख्या के अनुपात में राजनैतिक परिदृश्य में अपने लिए जगह की मांग कर सकती हैं. हिंदी पट्टी में यह एक बड़ा राजनैतिक परिवर्तन आया है और इसीलिए पूरा राजनैतिक नेतृत्व बदला है, जिस पर गौर किया जा सकता है.
दूसरी बात, लैंगिक असमानताओं को लेकर भी इस पट्टी में बड़ा बदलाव आया है. यह बदलाव मुख्य रूप से आर्थिक कारणों से है. लडकियों के लिये शिक्षा के दरवाजे खुले और बडी संख्या में लडकियों ने इसका लाभ उठाया .
वह नौकरियां करने लगीं, घर से बाहर निकलने लगीं. आर्थिक कारणों ने उस पुरुष जिद को कमजोर किया है जो महिलाओं को घर में कैद रखने और काम पर न जाने देने में विश्वास करती थी.
पंचायती राज में परिवर्तन हुए, जिसमें बड़े पैमाने पर महिलाओं के लिए आरह्नण किया गया, उससे भी उन्हें घर से बाहर निकलने में मदद मिली. बावजूद इसके कि अभी भी पंचायती राज में हम प्रधान पति' जैसी संस्था देख रहे हैं जिसमें कहने के लिए तो महिला प्रधान है, लेकिन उसका पति ही सारा काम कर रहा है. स्थितियां बदल रही हैं, जिसमें महिलाएं अपनी जगह के लिए जद्दोजहद भी कर रही हैं और उसे हासिल भी कर रही हैं.
इस पूरे विमर्श में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी एक महत्वपूर्ण मसला है. यह बहुत दुखद है कि हिंदुओं के मध्य वर्ग का तेजी से सांह्णदायिककरण हुआ है. इसका मुख्य रूप से श्रेय राम जन्मभूमि आंदोलन को जाता है. 1970 के दशक के अंतिम वर्षों में धीरे-धीरे जिस आंदोलन की रूपरेखा बनी उसने दस सालों के भीतर ही पूरी हिंदी पट्टी में झंझवात का रूप ले लिया और 1980 और 1990 के दशक में यह वहां की सबसे महत्वपूर्ण घटना के तौर पर दर्ज हुआ. इस आंदोलन ने बुरी तरह से हिंदी पट्टी को बावरी मस्जिद के टूटने के बाद भी यह आन्दोलन समाप्त नहीं हुआ है. साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण और मजबूत हुआ है. इस ध्रूवीकरण ने हिन्दी पट्टी को बुरी तरह विभाजित किया है.
1947 में जिस तरह का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हुआ था, वह हमें इस दौर में दिखाई देता है. उसके खामियाजे भी भुगतने पड़े.
जाति और धर्म पर बँटे इस समाज में जिस चीज की सबसे पहले बलि चढी है वह सुशासन है. हिन्दी पट्टी में पिछले कई चुनाओं में सुशासन निर्णायक मुद्दा नहीं बन पाया है दरअसल इस तरह की सारी जद्दोजहद में जिस चीज की सबसे पहले बलि चढ़ी वह सुशासन ही था. हिंदी पट्टी में सुशासन मुद्दा नहीं बन पाया है. एक अच्छी सरकार जो बिजली दे, पानी दे, सड़क दे, शिक्षा दे, सामाजिक सुरक्षा दे और आगे बढ़ने की चेतना पैदा करे उसके लिए अभी तक कोई बड़ी मांग हिंदी पट्टी में उभरती हुई दिखाई नहीं देती. यह स्थिति कई बार निराश भी करती है, लेकिन मेरा मानना है कि यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं चल पाएगी.
ऐसे समय जब महाराष्ट्र में कोई नेतृत्व यह मांग कर रहा है कि बिहार या उत्तर प्रदेश के लोग मुंबई में आकर रोजगार हड़प रहे हैं और स्थानीय लोगों का हक मार रहे हैं तो हम उस नेतृत्व के पक्ष में खड़े नहीं हो सकते. जाहिर है, वह नेतृत्व देश को तोड़ने की बात कर रहा है. लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि आखिर ऐसी कौन-सी वजहें हैं कि इतने सारे लोग बिहार और उत्तर ह्णदेश या दूसरे हिंदीभाषी ह्नेत्रों से मुंबई या ऐसी ही दूसरी जगहों की ओर भाग रहे हैं? हम स्थानीय स्तर पर उन्हें क्यों रोजगार मुहैया नहीं करा पा रहे हैं? इससे क्षेत्रीय असंतुलन तो पैदा हो ही रहा है बल्कि एक खास तरह का पहचान का संकट भी बन रहा है.
दरअसल हिंदी पट्टी की एक बड़ी समस्या भू-सुधार की है. औद्योगिकरण नहीं होने की वजह से हमारे यहां आज भी उत्पादन का सबसे बड़ा स्रोत खेत हैं. खेत उन जातियों के पास हैं, जो हाथ से श्रम करने में शर्म महसूस करते हैं. हमें खेत उन लोगों के हाथ में देने होंगे जो श्रम करते हैं. तभी हम उत्पादकता भी बढ़ा पाएंगे.
खेती की अपनी सीमा है और बिना औद्योगिकरण के हम समाज को आगे नहीं बढ़ा सकते. औद्योगिकरण के लिए भूमि की आवश्यकता होगी, लिहाजा हमें इन दोनों में संतुलन कायम करना होगा. जिनकी भूमि ली जा रही हैं उन्हें इस तरह की क्षतिपूर्ति देनी होगी जिससे न केवल वे बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ी की भी क्षतिपूर्ति हो सके क्योंकि खेत किसी एक पीढ़ी के धरोहर नहीं होते. हमारे यहां जो उद्योगपति आना चाहते हैं या आ रहे हैं, वह भ्रष्टाचार से, अपराध से ब्लैकमेलिंग से त्रस्त हो जाते हैं और दूसरे प्रदेशों में चले जाते हैं. जाहिर है, किसी भी समाज को आगे जाना है तो उसको उत्पादकता के सारे नियम बदलने होंगे तभी वह आगे जा सकता है.
धूमिल ने लोकतंत्र के बरअक्स सही प्रश्न उठाया था. यह भी सही है कि हिंदी पट्टी के एक बड़े हिस्से में नक्सली सक्रिय हैं. नक्सलवाद वहीं है, जहां वंचित लोग हैं और जहां सुविधाएं नहीं हैं. जब तक वे हथियार नहीं उठाते तब तक हमें याद नहीं आता कि हमारे आंगन में कोई पिछड़ा हुआ ह्नेत्र है, वहां सार्वजनिक वितरण प्रणाली नहीं है, ऐसी परिस्थितियों के कारण ही नक्सलवादियों को खाद-पानी मिल रहा है.
वास्तव में हमारा समय ही ऐसा है, जिसमें हम धीरोदात्त नायक की कल्पना नहीं कर सकते, हमारे वाड्.मय में जिसकी परिकल्पना की गई हैऐसा नायक जो अपनी कद-काठी, रूप-रंग में उदात्त तो होगा ही अपनी सोच से भी बड़ा होगा. दरअसल हमारे समय में बत सारी चीजें हमारे सामने घट रही हैं. एक उत्तर आधुनिकता का दौर चल रहा है और हमें समझाया जा रहा है कि सब कुछ नष्ट हो गया है, विचारधारा, इतिहास और कहानी का अंत हो गया. लेकिन हमें अपने बीच से ही वे सारे ह्नण या वे सारे नेतृत्व तलाशने होंगे जो हमारे भीतर ऊर्जा भर दें, हमारे भीतर आशा भर दें, हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें और कहीं-न-कहीं यह एहसास कराएं कि जीवन में अभी भी बत कुछ सुंदर बचा है अभी भी बत कुछ हासिल किया जा सकता है, हमारे आसपास जो समाज और जीवन है उसे और सुंदर बनाया सकता है.
मुझे यह संभावना हर जगह नजर आ रही है. मसलन, महिलाओं की जिंदगी में बड़ा परिवर्तन दिख रहा है, 10-15 सालों में यह परिवर्तन आया है अन्यथा वह कई सौ बरसों में आता. बहुत तेजी के साथ सीमाएं टूट रही हैं, जाति की सीमाएं टूट रही हैं. युवा ह्नेत्र में भी आप हिंदी पट्टी में पाएंगे कि विश्वविद्यालय और ह्णौद्योगिकी संस्थान बड़ी संख्या में योग्य लोगों को निकाल रहे हैं जो पूरी दुनिया में जा रहे हैं. यह दुर्भाग्य की बात है कि हम उनके लिए ऐसी स्थितियां नहीं पैदा कर पा रहे हैं कि वे मुंबई या अमेरिका जाने के बजाए यहीं रहें. विज्ञान, ह्णौद्योगिकी और खेल के ह्नेत्र में हिंदी पट्टी के बहुत से लोग आगे बढ़ते दिखाई दे रहे हैं, ऐसे सारे लोग हमारी आशा की किरणें हैं.
हिंदी पट्टी को आप ऊपर से देखें तो यह एक निराशा का बोध कराती है, हमें एक ऐसा पिछड़ा और जड़, स्थिर समाज नजर आता है जिसमें आशा की किरण तलाशना मुश्किल होता है. लेकिन इसी के भीतर एक कुलबुलाहट नजर आती है, यह कुलबुलाहट सुशासन की है. मुझे लगता है कि एक-दो चुनाव के बाद स्थितियां बदलेंगी.

एसोसिएट कॉपी एडीटर सुदीप ठाकुर से बातचीत के आधार