Monday, April 27, 2009
साथी पुलिस अधिकारियों के नाम एक खुला पत्र
साथी पुलिस अधिकारियों के नाम एक खुला पत्र-
विभूति नारायण राय
प्रिय सहकर्मियों,
भारतीय पुलिस सेवा का एक अधिकारी होने के नाते इस कठिन समय में बड़े व्यथित मन से आप सबको यह पत्र लिख रहा हूँ। गुजरात में हुआ साम्प्रदायिक तांडव और उससे जुड़ी ताज़ा घटनायें देश के लिए गम्भीर सरोकार का विषय होने के साथ हम पुलिस अधिकारियों से भी गहन आत्मविश्लेषण की माँग करती हैं। गोधरा का नृशंस नरसंहार इस सच्चाई की पूर्व चेतावनी थी कि अगले दिन ही पूरा प्रदेश साम्प्रदायिक दंगों और विध्वंस की चपेट में आ सकता है। ऐसे में एक पेशावर और दक्ष पुलिस बल से यह उम्मीद थी कि वो किसी भी तरह की प्रतिहिंसा और बदला लेने जैसी गतिविधियों का सामना पूरी ताकत के साथ करे। मगर ऐसा नहीं हुआ- आने वाले दिनों में पुलिस हिंसा रोकने में असफल रही। तमाम जगहों पर तो ऐसा लगा कि पुलिस कर्मी खुद दंगाइयों को उकसाने में सक्रिय थे। पुलिस की ये असफलता नीचे स्तर के अधिकारियों पर नहीं थोपी जा सकती। इसे नेतृत्व की नाकामयाबी के रूप में देखा जाना चाहिये- यानि कि भारतीय पुलिस सेवा की नाकामयाबी।
गोधरा में हुई हैवानियत के बाद जो कुछ भी घटा उससे मेरे जैसे व्यक्ति को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मैं केवल एक पुलिस अधिकारी ही नहीं बल्कि सामाजिक व्यवहार का अध्येता भी हूँ। राजधानी अहमदाबाद से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक हर जगह वही पुरानी कहानी दोहरायी गई। 1960 और उसके बाद लगभग सभी दंगों में वही तस्वीर वही हालात दिखायी देते हैं। एक असहाय और अक्सर जानबूझकर निष्क्रिय पुलिस बल जो अपने सामने रोते-चिल्लाते गिड़गिड़ाते अल्पसंख्यकों को लुटते-पिटते-मरते और अपने ही लोगों को जिन्दा जलते देखने पर मजबूर करता है।
सामान्य नागरिक की तरह मेरा जो भी सरोकार हो पर एक पुलिस अधिकारी के रूप में पुलिस बल के कर्तव्यनिष्ठ चरित्र को बनाये रखना मेरे लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है। एक असंवेदनशील मुख्यमंत्री अपने अयोग्य और अक्षम पुलिस दल की पीठ ठोंक सकता है। वरिष्ठ पुलिस नेतृत्व स्थितियों पर नियंत्रण न कर पाने या 'मिस हैंडिल' करने के आरोपों को 'भ्रामक प्रचार करने वाले मीडिया' और 'राष्ट्र विरोधी' अल्पसंख्यकों के सर मढ़ सकता है। मगर सच तो ये है कि हर दंगे के बाद पुलिस की कड़ी आलोचना होती है। अल्पसंख्यकों के जान-माल की रक्षा करने में असफल पुलिस पर हिन्दू दंगाइयों का साथ देने और उन्हें उकसाने का इल्ज़ाम भी लगाया जाता है। गुजरात में हुए हालिया दंगों के बाद गुजरात पुलिस भी ऐसे ही आरोपों के घेरे में है.
जो कुछ भी गुजरात में हुआ उसमें कुछ भी नया नहीं है सिवाय इस सच के कि पुलिस के वरिष्ठ नेतृत्व को गम्भीरता से सोचना होगा कि हर दंगे के बाद वही पुरानी कहानी क्यों दोहरायी जाती है- अक्षमता, अकर्मण्यता, अपराधी होने की हद तक लापरवाही और उदासीनता! जब तक हम यह नहीं मानेगे कि हमारे घर में सब कुछ ठीक नहीं है, कुछ भी ठीक नहीं किया जा सकता। सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिक हिंसा का प्रतिरोध पुलिस एक संगठित बल के रूप में करती है। यह काम अलग-अलग स्तरों पर होता है, मारकाट या हिंसात्मक घटनाओं के शुरु होने से पहले गुप्त सूचनायें इकट्ठा करना, तनाव बढ़ने की स्थिति में प्रतिरोधक कदम उठाना, हिंसा रोकने के लिए बल प्रयोग और शांति स्थापित होने के बाद अपराधियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही। यह साम्प्रदायिक दंगों से लड़ने के लिये पुलिस द्वारा उठाये जाने वाले कुछ कदम हैं। इनमें से एक भी कदम या कार्यवाही प्रभावी साबित नही हो सकती अगर हम खुद साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं।
एक सामान्य पुलिसकर्मी के लिए गुप्त सूचनायें हासिल करने का मतलब है साम्प्रदायिक मुस्लिम संगठनों तक ही सीमित रहना। उसे यह अहसास कराना है कि हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों की गतिविधियाँ भी राष्ट्रविरोधी है और उन पर भी नज़र रखना उतना ही ज़रूरी है। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि पुलिस थानों के रिकार्ड में हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों की गतिविधियों के बारे में बहुत ही कम जानकारी मिलती है।
इसी तरह दंगो से सबसे ज़्यादा प्रभावित और भुक्तभोगी मुस्लिम अल्पसंख्यक ही दंगा रोकने के नाम पर गिरफ्तार किये जाते हैं। जहाँ मुसलमानों पर हमला होता है और पुलिस फायरिंग करती है वहाँ भी पुलिस बल के निशाने पर मुसलमान ही होते हैं। गिरफ्तारियों और घर की तलाशी में भी यही मानसिकता दिखायी देती है। गुजरात में जो हुआ वो भी उसी ढर्रे पर हुआ जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है- जो फ़र्क देखने में आया वो था खुल्लम-खुल्ला बगैर किसी रोक-टोक एकतरफ़ा हिंसा और मारकाट जिसने सारी हदें पार कर दी। दूसरा फ़र्क यह था कि पहली बार पुलिस के नाकारापन, साँठ-गाँठ और पूर्वग्रसित मानसिकता का चेहरा टेलीविज़न चैनलों के माध्यम से पूरे देश और विदेशों में भी दिखाया गया। ऐसे में हर बार की तरह हमारे पास प्रिंट मीडिया द्वारा तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किये जाने का बहाना भी नहीं रह गया।
यहाँ इस तथ्य का जिक्र करना ज़रूरी है जिन जगहों पर नेतृत्व ऐसे हाथों में रहा जो अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान, दक्ष और किसी भी तरह के साम्प्रदायिक भेदभाव से दूर थे, उन्हीं पुलिसकर्मियों ने समाज के अलग-अलग तबकों का विश्वास जीता। पुलिस संगठन को उन कर्मियों पर गर्व है। 'सैन्य दल नहीं जनरल असफल होते हैं'- ये घिसी-पीटी कहावत अब अपना संदर्भ खो चुकी है। अक्सर अधिकारी साम्प्रदायिक झगड़े को प्रभावी ढंग से न रोक पाने की जिम्मेदारी अपने मातहतो पर डाल देते हैं- मगर गुजरात दंगों के दौरान, जहाँ पुलिस लगातार असफल रही, ऐसे भी उदाहरण हैं जब साहसी और कर्तव्यनिष्ठ आई.पी.एस अधिकारियों के नेतृत्व में पुलिस बल ने यह सुनिश्चित किया कि उनके कार्यक्षेत्र में किसी भी तरह की हिंसा या जान-माल का नुकसान न हो।
अफ़सोस यह है कि ऐसे पुलिस अधिकारी जो न केवल दंगे नियंत्रित करने में असफल रहे बल्कि दंगे भड़काने में भी सक्रिय थे, आज तक किसी भी सज़ा के दायरे में नही लाये जा सके। 1984 के सिक्ख दंगों के दौरान, चाक चौबन्द पुलिस व्यवस्था से लैस शहरों में से एक राजधानी दिल्ली हज़ारों सिक्खों के क़त्ल की गवाह बनी। पुलिस की साँठ-गाँठ के बगैर ऐसा क़त्ले-ए-आम संभव नहीं था।
न केवल प्रेस बल्कि कई जाँच आयोगों द्वारा अभियोग साबित होने के बावजूद एक भी पुलिस अधिकारी को सज़ा नही हुई और न ही उनकी उन्नति-प्रोन्नति में कोई रूकावट दिखाई दी। इन आयोगों में कुछ से जाने माने सम्मानित आई.पी.एस. अधिकारी श्री पद्म रोश भी जुड़े थे। मदोन कमीशन और श्री कृष्णा कमीशन की भी यही गति हुई। कोई भी बाहरी ताकत हमें सुधार नहीं सकती। यह एक ऐसा काम है जो स्वयं करना होगा। जिस सेवा से हमारा सीधा संबंध है, जिसका गौरव कल तक देश के लिये एक अनुकरणीय उदाहरण था, उसके प्रति हमारे भीतर अगर कुछ भी सम्मान बचा है तो समझिये कि अपने को पुर्नव्यवस्थित करने, खोई हुई प्रतिष्ठा और जन विश्वास जीतने का समय आ गया है।
हमें केन्द्रीय आई.पी.एस. एशोसियेशन की एक सामान्य बैठक बुलाकर यह माँग करनी चाहिये कि सरकार गुजरात के उन पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध कार्यवाही करे जो हिंसा रोकने और कानून व्यवस्था बनाये रखने में असफल रहे; उन सभी अधिकारियों के खिलाफ़ भी जिन्होंने 1984 से अब तक ऐसी स्थितियों में अपेक्षित कर्तव्यों का निर्वाह नहीं किया। हमें अपने संगठन को ट्रेड यूनियन की तरह बेहतर वेतन और कार्य-स्थितियों की लड़ाई तक सीमित न रखकर अपनी सेवा में सुधार लाने का एक माध्यम समझना चाहिये। अगर सरकार कोई कार्यवाही नहीं करती तो कम से कम हम लोग ऐसे अधिकारियों को ऐशोसिएशन की सदस्यता से अलग कर सकते हैं ।
आप में से बहुतों से शीघ्र उत्तर की प्रतीक्षा में...।
-विभूति नारायण राय, आई.पी.एस. (UP, RR, 3 1975)
अनुवाद: अखिलेश दीक्षित जनसंचार माध्यम एवं सम्प्रेषण विभाग म.गां.अ.हि.वि.वि., वर्धा
विभूति नारायण राय
प्रिय सहकर्मियों,
भारतीय पुलिस सेवा का एक अधिकारी होने के नाते इस कठिन समय में बड़े व्यथित मन से आप सबको यह पत्र लिख रहा हूँ। गुजरात में हुआ साम्प्रदायिक तांडव और उससे जुड़ी ताज़ा घटनायें देश के लिए गम्भीर सरोकार का विषय होने के साथ हम पुलिस अधिकारियों से भी गहन आत्मविश्लेषण की माँग करती हैं। गोधरा का नृशंस नरसंहार इस सच्चाई की पूर्व चेतावनी थी कि अगले दिन ही पूरा प्रदेश साम्प्रदायिक दंगों और विध्वंस की चपेट में आ सकता है। ऐसे में एक पेशावर और दक्ष पुलिस बल से यह उम्मीद थी कि वो किसी भी तरह की प्रतिहिंसा और बदला लेने जैसी गतिविधियों का सामना पूरी ताकत के साथ करे। मगर ऐसा नहीं हुआ- आने वाले दिनों में पुलिस हिंसा रोकने में असफल रही। तमाम जगहों पर तो ऐसा लगा कि पुलिस कर्मी खुद दंगाइयों को उकसाने में सक्रिय थे। पुलिस की ये असफलता नीचे स्तर के अधिकारियों पर नहीं थोपी जा सकती। इसे नेतृत्व की नाकामयाबी के रूप में देखा जाना चाहिये- यानि कि भारतीय पुलिस सेवा की नाकामयाबी।
गोधरा में हुई हैवानियत के बाद जो कुछ भी घटा उससे मेरे जैसे व्यक्ति को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मैं केवल एक पुलिस अधिकारी ही नहीं बल्कि सामाजिक व्यवहार का अध्येता भी हूँ। राजधानी अहमदाबाद से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक हर जगह वही पुरानी कहानी दोहरायी गई। 1960 और उसके बाद लगभग सभी दंगों में वही तस्वीर वही हालात दिखायी देते हैं। एक असहाय और अक्सर जानबूझकर निष्क्रिय पुलिस बल जो अपने सामने रोते-चिल्लाते गिड़गिड़ाते अल्पसंख्यकों को लुटते-पिटते-मरते और अपने ही लोगों को जिन्दा जलते देखने पर मजबूर करता है।
सामान्य नागरिक की तरह मेरा जो भी सरोकार हो पर एक पुलिस अधिकारी के रूप में पुलिस बल के कर्तव्यनिष्ठ चरित्र को बनाये रखना मेरे लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है। एक असंवेदनशील मुख्यमंत्री अपने अयोग्य और अक्षम पुलिस दल की पीठ ठोंक सकता है। वरिष्ठ पुलिस नेतृत्व स्थितियों पर नियंत्रण न कर पाने या 'मिस हैंडिल' करने के आरोपों को 'भ्रामक प्रचार करने वाले मीडिया' और 'राष्ट्र विरोधी' अल्पसंख्यकों के सर मढ़ सकता है। मगर सच तो ये है कि हर दंगे के बाद पुलिस की कड़ी आलोचना होती है। अल्पसंख्यकों के जान-माल की रक्षा करने में असफल पुलिस पर हिन्दू दंगाइयों का साथ देने और उन्हें उकसाने का इल्ज़ाम भी लगाया जाता है। गुजरात में हुए हालिया दंगों के बाद गुजरात पुलिस भी ऐसे ही आरोपों के घेरे में है.
जो कुछ भी गुजरात में हुआ उसमें कुछ भी नया नहीं है सिवाय इस सच के कि पुलिस के वरिष्ठ नेतृत्व को गम्भीरता से सोचना होगा कि हर दंगे के बाद वही पुरानी कहानी क्यों दोहरायी जाती है- अक्षमता, अकर्मण्यता, अपराधी होने की हद तक लापरवाही और उदासीनता! जब तक हम यह नहीं मानेगे कि हमारे घर में सब कुछ ठीक नहीं है, कुछ भी ठीक नहीं किया जा सकता। सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिक हिंसा का प्रतिरोध पुलिस एक संगठित बल के रूप में करती है। यह काम अलग-अलग स्तरों पर होता है, मारकाट या हिंसात्मक घटनाओं के शुरु होने से पहले गुप्त सूचनायें इकट्ठा करना, तनाव बढ़ने की स्थिति में प्रतिरोधक कदम उठाना, हिंसा रोकने के लिए बल प्रयोग और शांति स्थापित होने के बाद अपराधियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही। यह साम्प्रदायिक दंगों से लड़ने के लिये पुलिस द्वारा उठाये जाने वाले कुछ कदम हैं। इनमें से एक भी कदम या कार्यवाही प्रभावी साबित नही हो सकती अगर हम खुद साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं।
एक सामान्य पुलिसकर्मी के लिए गुप्त सूचनायें हासिल करने का मतलब है साम्प्रदायिक मुस्लिम संगठनों तक ही सीमित रहना। उसे यह अहसास कराना है कि हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों की गतिविधियाँ भी राष्ट्रविरोधी है और उन पर भी नज़र रखना उतना ही ज़रूरी है। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि पुलिस थानों के रिकार्ड में हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों की गतिविधियों के बारे में बहुत ही कम जानकारी मिलती है।
इसी तरह दंगो से सबसे ज़्यादा प्रभावित और भुक्तभोगी मुस्लिम अल्पसंख्यक ही दंगा रोकने के नाम पर गिरफ्तार किये जाते हैं। जहाँ मुसलमानों पर हमला होता है और पुलिस फायरिंग करती है वहाँ भी पुलिस बल के निशाने पर मुसलमान ही होते हैं। गिरफ्तारियों और घर की तलाशी में भी यही मानसिकता दिखायी देती है। गुजरात में जो हुआ वो भी उसी ढर्रे पर हुआ जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है- जो फ़र्क देखने में आया वो था खुल्लम-खुल्ला बगैर किसी रोक-टोक एकतरफ़ा हिंसा और मारकाट जिसने सारी हदें पार कर दी। दूसरा फ़र्क यह था कि पहली बार पुलिस के नाकारापन, साँठ-गाँठ और पूर्वग्रसित मानसिकता का चेहरा टेलीविज़न चैनलों के माध्यम से पूरे देश और विदेशों में भी दिखाया गया। ऐसे में हर बार की तरह हमारे पास प्रिंट मीडिया द्वारा तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किये जाने का बहाना भी नहीं रह गया।
यहाँ इस तथ्य का जिक्र करना ज़रूरी है जिन जगहों पर नेतृत्व ऐसे हाथों में रहा जो अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान, दक्ष और किसी भी तरह के साम्प्रदायिक भेदभाव से दूर थे, उन्हीं पुलिसकर्मियों ने समाज के अलग-अलग तबकों का विश्वास जीता। पुलिस संगठन को उन कर्मियों पर गर्व है। 'सैन्य दल नहीं जनरल असफल होते हैं'- ये घिसी-पीटी कहावत अब अपना संदर्भ खो चुकी है। अक्सर अधिकारी साम्प्रदायिक झगड़े को प्रभावी ढंग से न रोक पाने की जिम्मेदारी अपने मातहतो पर डाल देते हैं- मगर गुजरात दंगों के दौरान, जहाँ पुलिस लगातार असफल रही, ऐसे भी उदाहरण हैं जब साहसी और कर्तव्यनिष्ठ आई.पी.एस अधिकारियों के नेतृत्व में पुलिस बल ने यह सुनिश्चित किया कि उनके कार्यक्षेत्र में किसी भी तरह की हिंसा या जान-माल का नुकसान न हो।
अफ़सोस यह है कि ऐसे पुलिस अधिकारी जो न केवल दंगे नियंत्रित करने में असफल रहे बल्कि दंगे भड़काने में भी सक्रिय थे, आज तक किसी भी सज़ा के दायरे में नही लाये जा सके। 1984 के सिक्ख दंगों के दौरान, चाक चौबन्द पुलिस व्यवस्था से लैस शहरों में से एक राजधानी दिल्ली हज़ारों सिक्खों के क़त्ल की गवाह बनी। पुलिस की साँठ-गाँठ के बगैर ऐसा क़त्ले-ए-आम संभव नहीं था।
न केवल प्रेस बल्कि कई जाँच आयोगों द्वारा अभियोग साबित होने के बावजूद एक भी पुलिस अधिकारी को सज़ा नही हुई और न ही उनकी उन्नति-प्रोन्नति में कोई रूकावट दिखाई दी। इन आयोगों में कुछ से जाने माने सम्मानित आई.पी.एस. अधिकारी श्री पद्म रोश भी जुड़े थे। मदोन कमीशन और श्री कृष्णा कमीशन की भी यही गति हुई। कोई भी बाहरी ताकत हमें सुधार नहीं सकती। यह एक ऐसा काम है जो स्वयं करना होगा। जिस सेवा से हमारा सीधा संबंध है, जिसका गौरव कल तक देश के लिये एक अनुकरणीय उदाहरण था, उसके प्रति हमारे भीतर अगर कुछ भी सम्मान बचा है तो समझिये कि अपने को पुर्नव्यवस्थित करने, खोई हुई प्रतिष्ठा और जन विश्वास जीतने का समय आ गया है।
हमें केन्द्रीय आई.पी.एस. एशोसियेशन की एक सामान्य बैठक बुलाकर यह माँग करनी चाहिये कि सरकार गुजरात के उन पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध कार्यवाही करे जो हिंसा रोकने और कानून व्यवस्था बनाये रखने में असफल रहे; उन सभी अधिकारियों के खिलाफ़ भी जिन्होंने 1984 से अब तक ऐसी स्थितियों में अपेक्षित कर्तव्यों का निर्वाह नहीं किया। हमें अपने संगठन को ट्रेड यूनियन की तरह बेहतर वेतन और कार्य-स्थितियों की लड़ाई तक सीमित न रखकर अपनी सेवा में सुधार लाने का एक माध्यम समझना चाहिये। अगर सरकार कोई कार्यवाही नहीं करती तो कम से कम हम लोग ऐसे अधिकारियों को ऐशोसिएशन की सदस्यता से अलग कर सकते हैं ।
आप में से बहुतों से शीघ्र उत्तर की प्रतीक्षा में...।
-विभूति नारायण राय, आई.पी.एस. (UP, RR, 3 1975)
अनुवाद: अखिलेश दीक्षित जनसंचार माध्यम एवं सम्प्रेषण विभाग म.गां.अ.हि.वि.वि., वर्धा
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