Tuesday, January 26, 2010

1 comment:

विवेक जायसवाल said...

आपकी इस बात से मैं भी सहमत हूं कि भारतीय समाज वास्तव में अपनी अन्त:निर्मिति में ही लोकतंत्र का विरोधी है. दरअसल जिस समाज में मनुष्य, मनुष्य को ही देखना न पसंद करे, मानवीयता का जहां नामोनिशान तक न हो, घृणा कूट-कूट कर लोगों के अंदर भरी हुई हो वहां लोकतंत्र की कल्पना करना ही बेकार है. जाति और धर्म रूपी औजार ही लोकतंत्र बनने के खतरे के रूप में हमारे सामने हैं.
आजादी के पहले भी ये औजार काम करते रहे और यही कारण है कि हमने आजादी की जगह घृणा, अमानवीयता, निर्ममता, असमानता आदि उपहास्वरूप पाए हैं और उन्हें आज तक ढो रहे हैं.

विवेक जायसवाल
शोधार्थी(पी-एच.डी.)जनसंचार विभाग
म.गा.अ.हि.वि.वि., वर्धा