Friday, August 27, 2010
राष्ट्रीय सहारा -शनिवार २४ जुलाई २०१० -दंगों में दिखता पुलिस का असल चेहरा- विभूति नारायण राय
साम्प्रदायिक हिंसा के विरुद्ध बिल के बहाने सबसे पहले इसके द्वारा बढे अधिकारों का उपयोग करने वाली संस्थाओं की क्षमता , इच्छा शक्ति और पूर्व मे उनके द्वारा विधि से प्राप्त अधिकारों के उपयोग अथवा दुरुपयोग के इतिहास को खगाँलना आवश्यक है । मुझे पूर्व मे इसी बिल के ड्राफ्ट पर विचार करने के लिये आयोजित एक गोष्ठी की याद आ रही है जिसमे सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे.एस.वर्मा ने बहुत अच्छा सवाल उठाया कि क्या भारत के मौजूदा कानून साम्प्रदायिक हिंसा से निपटने के लिये पर्याप्त नही हैं ? वे सम्भवत: पूछ्ना चाहते थे कि अगर भारतीय राज्य मे मौजूदा कानूनों की तरह इस नये कानून को लागू करने के भी लिये जरूरी इच्छा शक्ति का अभाव रहा तो इसका भी हश्र उन्ही जैसा तो नही हो जायेगा?अब जब यह कानून की शक्ल लेने जा रहा तो मेरे मन मे एक और सवाल कौधँ रहा है । क्या भारतीय राज्य की जिस संस्था को मुख्यरूप से इन प्राविधानों का उपयोग करना है वह इसके योग्य है भी या नही ? अदालतों तक पहुचने के पहले पुलिस इस नये कानून का उपयोग या दुरुपयोग करेगी । पिछ्ला अनुभव बताता है कि विधि मे उपलब्ध प्राविधानों का उपयोग पुलिस ने इस तरह किया है कि दंगों मे पीडितों , खास तौर से अल्पसंख्यकों , के मन मे हमेशा यह कसक रही है कि भारतीय राज्य नें वह सब नही किया जो उसे ऐसी स्थिति मे करना चाहिए था या उसने वह सब किया जो उसे नही करना चाहिये था । 1960 के बाद के हर साम्प्रदायिक दंगे मे पुलिस के ऊपर पक्षपात के आरोप लगे हैं। आरोप लगाने वालों में सिर्फ मुसलमान ही नही बल्कि मानवाधिकार संगठनों से जुडे लोग, स्वतंत्र मीडिया और विभिन्न जांच आयोगों की रपटें शामिल है । यदि हम सरकारी आकँडों का ही यकीन करें तब भी हम यही पायेंगे कि हर दंगे में मरने वालों में ज्यादातर मुसलमान थे । न सिर्फ ज्यादा बल्कि अधिकांश मामलों मे तो तीन चौथाई से भी ज्यादा। उस पर तुर्रा यह कि इनमे पुलिस कार्यवाही भी अधिकतर मुसलमानों के खिलाफ ही हुई। अर्थात जिन दगों मे मरने वले अधिकतर मुसलमान थे उनमे भी पुलिस की गाज उनपर ही गिरी ।मतलब ज्यादा मुसलमान गिरफ्तार हुए, अधिकतर तलाशियाँ भी उन्ही के घरों की हुयी और उन दंगों मे भी जहां मरने वाले तीन चौथायी से अधिक मुसलमान थे वहां भी अगर पुलिस नें गोली चलायी तो उनके शिकार भी मुख्य रूप से मुसलमान ही हुए ।मुसलमानों में पुलिस के प्रति अविश्वास इतना अधिक है कि अपने एक शोध के दौरान जब मैने दंगा पीडितों से एक बहुत साधारण सा प्रश्न पूंछा कि क्या उस समय जब उनकी जान और माल खतरे मे हो तो क्या वे मदद के लिये पुलिस के पास जाना चाहेंगे ? दुनिया के किसी भी दूसरे मुल्क में इस तरह का सवाल केवल पागल ही पूंछ सकता है क्योकि कही भी खतरे में पड्नें पर नागरिक राज्य की तरफ ही स्वाभाविक रूप से देखेंगे। राज्य का मुख्य कर्तव्य ही नागरिकों की जान माल की हिफाजत करना है और राज्य का सबसे दृश्यमान अंग पुलिस इस भूमिका को निभाता है।पर आप इस पर क्या कहेंगे कि मेरे प्रश्न के उत्तर मे अल्पसंख्यक दंगा पीडितों की बहुसंख्या ने कहा कि वे उस समय भी जब उनकी जान माल खतरे मे हो पुलिस के पास नही जाना चाहेंगे। उनका यह संकोच किसी शून्य नही उपजा है।इसके पीछे ठोस ऐतिहासिक कारण हैं । उन्होने विभिन्न साम्प्रदायिक दंगों में पुलिस के पक्षपात पूर्ण व्यवहार का दंश झेला है ।मैनें खुद अपने शोध के दौरान और 35 वर्षो की भारतीय पुलिस सेवा की अवधि मे ऐसे बहुत से मामले देखे हैं जब साम्प्रदायिक हिंसा की आग मे लुटा पिटा कोई मुसलमान पुलिस के पास पहुचा तो बजाय कन्धों पर आश्वस्तिकारक थपथपाहट के उसने अपने गालों पर एक झन्नाटेदार झापड पाया । 1984 मे सिक्खों के अनुभव भी कुछ कुछ ऐसे ही थे जब दिल्ली जैसे शहर मे भी पुलिस नें अधिकांश मामलों मे मुसीबतजदा सिक्खों की मदद करने की जगह बलवाइयों का साथ दिया और कई मामलों तो अगर पुलिस न पहुची होती तो सिक्ख अपनी जान बचाने मे कामयाब हो गये होते ।
मैने ऊपर जिन परिस्थितियों का जिक्र किया है उनमे किसी मे भी वर्तमान कानूनों की अपर्याप्तता अथवा अक्षमता जिम्मेदार नही है। सभी के पीछे एक ही कारण है और वह है हमारे मनों के अन्दर गहरे पैठीं गहरी दुर्भावना जो हमें खाकी पहनने के बाद भी हिन्दू या मुसलमान बनाये रखता है । भारतीय राज्य के विभिन्न अवयव आज भी हम और वे की मनोग्रंथि से पीडित हैं । मुसलमान उनके लिये अभी भी वे हैं ।पुलिस के अधिकांश लोग मानते है कि दंगा मुसलमान शुरू करते हैं और दंगे को रोकने के लिये उनके पास सबसे आसान नुस्खा है मुसलमानो के साथ सख्ती । इसी लिये उन दंगो मे भी, जिनमे शुरुआत से हिन्दू हमलावर दिखते हैं, पुलिस की कार्यवाही मुसलमानो के विरुद्ध ही होती दिखती है । एक औसत पुलिसकर्मी के मन मे यह बात इतने गहरे बैठी है कि आम तौर से मुसलमान हिंसक और क्रूर होता है कि उसके लिये यह मान पाना कि कोई दंगा हिन्दुओं ने शुरू किया है या किसी दंगे मे हिन्दू हमलावर हो सकते हैं लगभग असम्भव है।उसके लिये औसत हिन्दू आमतौर से उदार या अहिंसक होता है ।मुझे याद है कि 1990 में जब रामजन्मभूमि आन्दोलन अपने चरम पर था और मै इलाहाबाद मे नियुक्त था , मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि पुलिस थानों मे साम्प्रदायिकता के मोर्चे पर सिर्फ मुसलमानों के विरुद्ध इंटेलिजेंस उपलब्ध था ।विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन , जो खुले आम हिंसा भड्का रहे थे, के बारे मे न के बराबर सूचनायें थीं ।पुलिसकर्मियों को यह समझाने मे मुझे बहुत मेहनत करनी पडी कि उन परिस्थितियों मे हमारे रडार पर हिन्दू संगठन होने चाहिये न कि मुस्लिम । ऐसा नहीं कि भारतीय राज्य के अवयओं मे सिर्फ पुलिस ही इस ग्रंथि से पीडित है ।न्यायपालिका ने बहुत से मौकों पर निराश किया है । राजनैतिक नेतृत्व् ने तो हमेशा उस इच्छाशक्ति का अभाव दिखाया है जो साम्प्रदायिक हिसां से निपटंने के लिये जरूरी है।भारतीय समाज की सच्चाई जानने वाले सहमत होंगे कि दंगे भडक तो सकते हैं पर लम्बे तभी खिचते हैं जब राज्य चाहता है। मेरा तो दृढ विश्वास है कि यदि कोई द्ंगा 24 घंटे से अधिक चल रहा है तो इस बात की जाचं होनी चाहिये कि क्या राज्य का कोई अंग उसमे शरीक तो नही है । उपरोक्त के सन्दर्भ मे हमें साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ बनने वाले किसी भी कानून को परखना चाहिये ।
जब इस बिल का पहला ड्राफ्ट विचार विमर्श के लिये वितरित हुआ था तब से आज तक कई बार इस पर विस्तार से चर्चा हुई है । इस पर हुये विमर्शो मे राजनीतिक दलो , नागरिक अधिकार संघटनो तथा साम्प्रदायिकता से जुडे मुद्दो पर काम क़रने वाली संस्थाओ से जुडे लोगों ने भाग लिया है । मुझे भी कई बार इनमे भाग लेने का मौका मिला है । हर जगह एक आम राय बनी कि इस नये कानून मे पहले से ही बहुत अधिकार प्राप्त पुलिस को और अधिक अधिकार दिये जा रहे है।क्या पुलिस इन अधिकारो का प्रयोग अल्पसख्यकों की हिफाजत के लिये करेगी य इनका प्रयोग भी उनके खिलाफ ही होगा? ये बढे हुए अधिकार भारतीय राज्य को फासिस्ट तो नही बनायेंगे? इन सारे सवालो पर हमें विस्तार से विचार करना होगा । इस नये कानून मे एक बहुत अच्छी बात यह हुई है कि पह्ली बार किसी कानून मे हिंसा के शिकार व्यक्तियों के लिये क्षतिपूर्ति की वैधानिक व्यवस्था की गयी है। साथ ही अपने कर्तव्यों मे असफल सरकारी कर्मचारियो को उनका उत्तरदायित्व निर्धारित करते हुए दंडित करने के प्रविधान भी इसमे है। मेरे विचार से यह एक बहुत महत्वपूर्ण कदम है। अंत मे फिर वही एक प्रश्न—क्या महज कानून को अधिक सख्त बनाने से साम्प्रदायिकता की समस्या से निजात पायी जा सकती है? या इसके लिये भारतीय राज्य की संस्थाओ को अधिक सम्वेदनशील और वैज्ञानिक चेतना से लैस करना होगा? मुझे लगता है कि कानूनो से अधिक हमें अपने दिमागी जालों को साफ करना होगा ।
। विभूति नारायण राय
मैने ऊपर जिन परिस्थितियों का जिक्र किया है उनमे किसी मे भी वर्तमान कानूनों की अपर्याप्तता अथवा अक्षमता जिम्मेदार नही है। सभी के पीछे एक ही कारण है और वह है हमारे मनों के अन्दर गहरे पैठीं गहरी दुर्भावना जो हमें खाकी पहनने के बाद भी हिन्दू या मुसलमान बनाये रखता है । भारतीय राज्य के विभिन्न अवयव आज भी हम और वे की मनोग्रंथि से पीडित हैं । मुसलमान उनके लिये अभी भी वे हैं ।पुलिस के अधिकांश लोग मानते है कि दंगा मुसलमान शुरू करते हैं और दंगे को रोकने के लिये उनके पास सबसे आसान नुस्खा है मुसलमानो के साथ सख्ती । इसी लिये उन दंगो मे भी, जिनमे शुरुआत से हिन्दू हमलावर दिखते हैं, पुलिस की कार्यवाही मुसलमानो के विरुद्ध ही होती दिखती है । एक औसत पुलिसकर्मी के मन मे यह बात इतने गहरे बैठी है कि आम तौर से मुसलमान हिंसक और क्रूर होता है कि उसके लिये यह मान पाना कि कोई दंगा हिन्दुओं ने शुरू किया है या किसी दंगे मे हिन्दू हमलावर हो सकते हैं लगभग असम्भव है।उसके लिये औसत हिन्दू आमतौर से उदार या अहिंसक होता है ।मुझे याद है कि 1990 में जब रामजन्मभूमि आन्दोलन अपने चरम पर था और मै इलाहाबाद मे नियुक्त था , मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि पुलिस थानों मे साम्प्रदायिकता के मोर्चे पर सिर्फ मुसलमानों के विरुद्ध इंटेलिजेंस उपलब्ध था ।विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन , जो खुले आम हिंसा भड्का रहे थे, के बारे मे न के बराबर सूचनायें थीं ।पुलिसकर्मियों को यह समझाने मे मुझे बहुत मेहनत करनी पडी कि उन परिस्थितियों मे हमारे रडार पर हिन्दू संगठन होने चाहिये न कि मुस्लिम । ऐसा नहीं कि भारतीय राज्य के अवयओं मे सिर्फ पुलिस ही इस ग्रंथि से पीडित है ।न्यायपालिका ने बहुत से मौकों पर निराश किया है । राजनैतिक नेतृत्व् ने तो हमेशा उस इच्छाशक्ति का अभाव दिखाया है जो साम्प्रदायिक हिसां से निपटंने के लिये जरूरी है।भारतीय समाज की सच्चाई जानने वाले सहमत होंगे कि दंगे भडक तो सकते हैं पर लम्बे तभी खिचते हैं जब राज्य चाहता है। मेरा तो दृढ विश्वास है कि यदि कोई द्ंगा 24 घंटे से अधिक चल रहा है तो इस बात की जाचं होनी चाहिये कि क्या राज्य का कोई अंग उसमे शरीक तो नही है । उपरोक्त के सन्दर्भ मे हमें साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ बनने वाले किसी भी कानून को परखना चाहिये ।
जब इस बिल का पहला ड्राफ्ट विचार विमर्श के लिये वितरित हुआ था तब से आज तक कई बार इस पर विस्तार से चर्चा हुई है । इस पर हुये विमर्शो मे राजनीतिक दलो , नागरिक अधिकार संघटनो तथा साम्प्रदायिकता से जुडे मुद्दो पर काम क़रने वाली संस्थाओ से जुडे लोगों ने भाग लिया है । मुझे भी कई बार इनमे भाग लेने का मौका मिला है । हर जगह एक आम राय बनी कि इस नये कानून मे पहले से ही बहुत अधिकार प्राप्त पुलिस को और अधिक अधिकार दिये जा रहे है।क्या पुलिस इन अधिकारो का प्रयोग अल्पसख्यकों की हिफाजत के लिये करेगी य इनका प्रयोग भी उनके खिलाफ ही होगा? ये बढे हुए अधिकार भारतीय राज्य को फासिस्ट तो नही बनायेंगे? इन सारे सवालो पर हमें विस्तार से विचार करना होगा । इस नये कानून मे एक बहुत अच्छी बात यह हुई है कि पह्ली बार किसी कानून मे हिंसा के शिकार व्यक्तियों के लिये क्षतिपूर्ति की वैधानिक व्यवस्था की गयी है। साथ ही अपने कर्तव्यों मे असफल सरकारी कर्मचारियो को उनका उत्तरदायित्व निर्धारित करते हुए दंडित करने के प्रविधान भी इसमे है। मेरे विचार से यह एक बहुत महत्वपूर्ण कदम है। अंत मे फिर वही एक प्रश्न—क्या महज कानून को अधिक सख्त बनाने से साम्प्रदायिकता की समस्या से निजात पायी जा सकती है? या इसके लिये भारतीय राज्य की संस्थाओ को अधिक सम्वेदनशील और वैज्ञानिक चेतना से लैस करना होगा? मुझे लगता है कि कानूनो से अधिक हमें अपने दिमागी जालों को साफ करना होगा ।
। विभूति नारायण राय
Wednesday, August 25, 2010
Subscribe to:
Posts (Atom)