Sunday, June 5, 2011

हाशिमपुरा – 22 मई 1987






मरें तो गैर की गलियों मे



जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होतें हैं जो जिन्दगी भर आपका पीछा नहीं छोडतें । एक दु:स्वप्न से वे हमेशा आपके साथ चलतें हैं और कई बार तो कर्ज की तरह आपके सीने पर सवार रहतें हैं। हाशिमपुरा भी मेरे लिये कुछ ऐसा ही अनुभव है। 22 / 23 मई सन 1987 की आधी रात दिल्ली गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गाँव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकण्डों के बीच टार्च की कमजोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना और हर अगला कदम उठाने के पहले यह सुनिश्चित करना कि वह किसी जीवित या मृत शरीर पर न पडे - सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है।
उस रात दस-साढे दस बजे हापुड से वापस लौटा था। साथ जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी थे जिन्हें उनके बँगले पर उतारता हुआ मैं पुलिस अधीक्षक निवास पर पहुँचा। निवास के गेट पर जैसे ही कार की हेडलाइट्स पडी मुझे घबराया हुआ और उडी रंगत वाला चेहरा लिये सब इंसपेक्टर वी•बी•सिंह दिखायी दिया जो उस समय लिंक रोड थाने का इंचार्ज था। मेरा अनुभव बता रहा था कि उसके इलाके में कुछ गंभीर घटा है। मैंने ड्राइवर को कार रोकने का इशारा किया और नीचे उतर गया
वी•बी•सिंह इतना घबराया हुआ था कि उसके लिये सुसंगत तरीके से कुछ भी बता पाना संभव नहीं लग रहा था। हकलाते हुये और असंबद्ध टुकडों में उसने जो कुछ मुझे बताया वह स्तब्ध कर देने के लिये काफी था। मेरी समझ में आ गया कि उसके थाना क्षेत्र में कहीं नहर के किनारे पी•ए•सी• ने कुछ मुसलमानों को मार दिया है। क्यों मारा? कितने लोगों को मारा ? कहाँ से लाकर मारा ? स्पष्ट नहीं था। कई बार उसे अपने तथ्यों को दुहराने के लिये कह कर मैंने पूरे घटनाक्रम को टुकडे-टुकडे जोडते हुये एक नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की। जो चित्र बना उसके अनुसार वी•बी•सिंह थाने में अपने कार्यालय में बैठा हुआ था कि लगभग 9 बजे उसे मकनपुर की तरफ से फायरिंग की आवाज सुनायी दी। उसे और थाने में मौजूद दूसरे पुलिस कर्मियों को लगा कि गाँव में डकैती पड रही है। आज तो मकनपुर गाँव का नाम सिर्फ रेवेन्यू रिकार्ड्स में है । इस समय के गगनचुम्बी आवासीय इमारतों, मॉल और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों वाले मकनपुर में 1987 में दूर-दूर तक बंजर जमीन पसरी हुयी थी। इसी बंजर जमीन के बीच की एक चक रोड पर वी•बी•सिंह की मोटर सायकिल दौडी। उसके पीछे थाने का एक दारोगा और एक अन्य सिपाही बैठे थे। वे चक रोड पर सौ गज भी नहीं पहुँचे थे कि सामने से तेज रफ्तार से एक ट्रक आता हुआ दिखायी दिया। अगर उन्होंने समय रहते हुये अपनी मोटर सायकिल चक रोड से नीचे न उतार दी होती तो ट्रक उन्हें कुचल देता। अपना संतुलन संभालते-संभालते जितना कुछ उन्होंने देखा उसके अनुसार ट्रक पीले रंग का था और उस पर पीछे 41 लिखा हुआ था, पिछली सीटों पर खाकी कपडे पहने कुछ लोग बैठे हुये दिखे।किसी पुलिस कर्मी के लिये यह समझना मुश्किल नहीं था कि पी•ए•सी• की 41 वीं बटालियन का ट्रक कुछ पी•ए•सी• कर्मियों को लेकर उनके सामने से गुजरा था। पर इससे गुत्थी और उलझ गयी। इस समय मकनपुर गाँव से पी•ए•सी• का ट्रक क्यों आ रहा था ? गोलियों की आवाज के पीछे क्या रहस्य था ? वी•बी•सिंह ने मोटर सायकिल वापस चक रोड पर डाली और गाँव की तरफ बढा। मुश्किल से एक किलोमीटर दूर जो नजारा उसने और उसके साथियों ने देखा वह रोंगटे खडा कर देने वाला था । मकनपुर गाँव की आबादी से पहले चक रोड एक नहर को काटती थी। नहर आगे जाकर दिल्ली की सीमा में प्रवेश कर जाती थी। जहाँ चक रोड और नहर एक दूसरे को काटते थे वहाँ पुलिया थी। पुलिया पर पहुँचते- पहुँचते वी•बी•सिंह के मोटर सायकिल की हेडलाइट जब नहर के किनारे उगे सरकंडों की झाडियों पर पडी तो उन्हें गोलियों की आवाज का रहस्य समझ में आया। चारों तरफ खून के ताजा थक्के थे।अभी खून पूरी तरह से जमा नही था और जमीन पर उसे बहते हुए देखा जा सकता था । नहर की पटरी पर, झाडियों के बीच और पानी के अन्दर रिसते हुए जख्मों वाले शव बिखरे पडे थे। वी•बी•सिंह और उसके साथियों ने घटनास्थल का मुलाहिजा कर अन्दाज लगाने की कोशिश की कि वहाँ क्या हुआ होगा? उनकी समझ में सिर्फ इतना आया कि वहाँ पडे शवों और रास्ते में दिखे पी•ए•सी• की ट्रक में कोई संबन्ध जरूर है। साथ के सिपाही को घटनास्थल पर निगरानी के लिये छोडते हुये वी•बी•सिंह अपने साथी दारोगा के साथ वापस मुख्य सडक की तरफ लौटा। थाने से थोडी दूर गाजियाबाद-दिल्ली मार्ग पर पी•ए•सी• की 41वीं बटालियन का मुख्यालय था। दोनो सीधे वहीं पहुँचे। बटालियन का मुख्य द्वार बंद था ।काफी देर बहस करने के बावजूद भी संतरी ने उन्हें अंदर जाने की इजाजत नहीं दी। तब वी•बी•सिंह ने जिला मुख्यालय आकर मुझे बताने का फैसला किया।जितना कुछ आगे टुकड़ों टुकडों में बयान किये गये वृतांत से मैं समझ सका उससे स्पष्ट हो गया कि जो घटा है वह बहुत ही भयानक है और दूसरे दिन गाजियाबाद जल सकता था। पिछले कई हफ्तों से बगल के जिले मेरठ में सांप्रादायिक दंगे चल रहे थे और उसकी लपटें गाजियाबाद पहुँच रहीं थीं।मैंने सबसे पहले जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी को फोन किया। वे सोने जा ही रहे थे। उन्हें जगे रहने के लिये कह कर मैंने जिला मुख्यालय पर मौजूद अपने एडिशनल एस•पी•, कुछ डिप्टी एस•पी• और मजिस्ट्रेटों को फोन कर करके जगाया और तैयार होने के लिये कहा। अगले चालीस-पैंतालीस मिनटों में सात-आठ वाहनों में लदे-फंदे हम मकनपुर गाँव की तरफ लपके।वहाँ पहुचने मे हमें मुश्किल से पन्द्रह मिनट लगे होंगे। नहर की पुलिया से थोडा पहले हमारी गाडियाँ खडीं हो गयीं। नहर के दूसरी तरफ थोडी दूर पर ही मकनपुर गाँव की आबादी थी लेकिन कोई गाँव वाला वहाँ नहीं दिख रहा था। लगता था कि दहशत ने उन्हें घरों में दुबकने को मजबूर कर दिया था। थाना लिंक रोड के कुछ पुलिस कर्मी जरूर वहाँ पहुँच गये थे। उनकी टार्चों की रोशनी के कमजोर वृत्त नहर के किनारे उगी घनी झाडियों पर पड रहे थे पर उनसे साफ देख पाना मुश्किल था। मैंने गाडियों के ड्रायवरों से नहर की तरफ रुख करके अपने हेडलाइट्स ऑन करने के लिये कहा। लगभग सौ गज चौडा इलाका प्रकाश से नहा उठा। उस रोशनी में मैंने जो कुछ देखा वह वही दु;स्वप्न था जिसका जिक्र मैंने शुरु में किया है।
गाडियों की हेडलाइट्स की रोशनियाँ झाडियों से टकरा कर टूट टूट जा रहीं थीं इसलिये टार्चों का भी इस्तेमाल करना पड रहा था। झाडियों और नहरों के किनारे खून के थक्के अभी पूरी तरह से जमे नहीं थे , उनमें से खून रिस रहा था। पटरी पर बेतरतीबी से शव पडे थे- कुछ पूरे झाडियों में फंसे तो कुछ आधे तिहाई पानी में डूबे। शवों की गिनती करने या निकालने से ज्यादा जरूरी मुझे इस बात की पडताल करना लगा कि उनमें से कोई जीवित तो नहीं है। वहां मौजूद हम सबने अलग-अलग दिशाओं में टार्चों की रोशनियाँ फेंक फेंक कर अन्दाज लगाने की कोशिश की कि कोई जीवित है या नहीं। बीच बीच में हम हांक भी लगाते रहे कि यदि कोई जीवित हो तो उत्तर दे। हम दुश्मन नहीं दोस्त हैं। उसे अस्पताल ले जायेंगे। पर कोई जवाब नहीं मिला। निराश होकर हममें से कुछ पुलिया पर बैठ गये।
मैंने और जिलाधिकारी ने तय किया कि समय खोने से कोई लाभ नहीं है।हमारे पड़ोस में मेरठ जल रहा था और 60 किलोमीटर दूर बैठे हम उसकी आंच से झुलस रहे थे । अफवाहों और शरारती तत्वों से जूझते हुए हम निरंतर शहर को इस आग से बचाने की कोशिश कर रहे थे । यह सोचकर दहशत हो रही थी कि कल जब ये शव पोस्टमार्ट्म के लिए जिला मुख्यालय पहुंचेंगे तो अफवाहों के पर निकल आयेंगे और पूरे शहर को हिंसा का दावनल लील सकता है । हमें दूसरे दिन की रणनीति बनानी थी इसलिये जूनियर अधिकारियों को शवों को निकालने और जरूरी लिखा-पढी करने के लिये कह कर हम लिंक रोड थाने के लिये मुडे ही थे कि नहर की तरफ से खाँसने की आवाज सुनायी दी। सभी ठिठक कर रुक गये। मैं वापस नहर की तरफ लपका। फिर मौन छा गया। स्पष्ट था कि कोई जीवित है लेकिन उसे यकीन नहीं है कि जो लोग उसे तलाश रहें हैं वे मित्र हैं। हमने फिर आवाजें लगानी शुरू कीं, टार्च की रोशनी अलग-अलग शरीरों पर डालीं और अंत में हरकत करते हुये एक शरीर पर हमारी नजरें टिक गयीं। कोई दोनो हाथों से झाडियाँ पकडे आधा शरीर नहर में डुबोये इस तरह पडा था कि बिना ध्यान से देखे यह अन्दाज लगाना मुश्किल था कि वह जीवित है या मृत ! दहशत से बुरी तरह काँप रहा और काफी देर तक आश्वस्त करने के बाद यह विश्वास करने वाला कि हम उसे मारने नहीं बचाने वालें हैं, जो व्यक्ति अगले कुछ घंटे हमे इस लोमहर्षक घटना की जानकारी देने वाला था, उसका नाम बाबूदीन था । गोली दो जगह उसका मांस चीरते हुये निकल गयी थी। भय से नि;श्चेष्ट होकर वह झाडियों में गिरा तो भाग दौड में उसके हत्यारों को पूरी तरह यह जाँचने का मौका नहीं मिला कि वह जीवित है या मर गया। दम साधे वह आधा झाडियों और आधा पानी में पडा रहा और इस तरह मौत के मुँह से वापस लौट आया। उसे कोई खास चोट नहीं आयी थी और नहर से सहारा देकर निकाले जाने के बाद अपने पैरों पर चलकर वह गाडियों तक आया। बीच में पुलिया पर बैठकर थोडी देर सुस्ताया भी। लगभग 21 वर्षों बाद जब हाशिमपुरा पर किताब लिखने के लिये सामग्री इकट्ठी करते समय मेरी उससे मुलाकात हाशिमपुरा में वही हुयी जहाँ से पी•ए•सी• उसे उठा कर ले गयी थी , वह मेरा चेहरा भूल चुका था लेकिन मेरा परिचय जानते ही जो पहली बात उसे याद आयी वह यह थी कि पुलिया पर बैठे उसे मैने किसी सिपाही से माँग कर बीडी दी थी। बाबूदीन ने जो बताया उसके अनुसार उस दिन अपरान्ह तलाशियों के दौरान पी•ए•सी• के एक ट्रक पर बैठाकर चालीस पचास लोगों को ले जाया गया तो उन्होंने समझा कि उन्हें गिरफ्तार कर जेल ले जाया जा रहा है । वे लगातार प्रतीक्षा करते रहे कि जेल आयेगा और उन्हें उतार कर उसके अन्दर दाखिल कर दिया जायेगा ।वे सभी वर्षों से मेरठ में रह रहे थे और कुछ तो यहीं के मूल बाशिन्दे थे - इस लिये कर्फ्यू लगी सूनी सडकों पर जेल पहुचनें में लगनें वाला वक्त कुछ ज्यादा तो लगा पर बाकी सब कुछ इतना स्वाभाविक था कि उन्हें थोडी देर बाद जो घटने वाला था उसका जरा भी आभास नही हुआ ।जब नहर के किनारे उतार कर उन्हें एक एक कर मारा जाने लगा तब उन्हे रास्ते भर अपने हत्यारों के खामोश चेहरों और उनके फुसफुसाकर एक दूसरे से बात करनें का राज समझ में आया।
इसके बाद की कथा एक लंबी और यातनादायक प्रतीक्षा का वृतांत है जिसमें भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, पुलिस का गैर पेशेवराना रवैया और घिसट घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुडे हुयें हैं। मैंने 22 मई 1987 को जो मुकदमें गाजियाबाद के थाना लिंक रोड और मुरादनगर पर दर्ज कराये थे वे पिछले 23 वर्षों से विभिन्न बाधाओं से टकराते हुये अभी भी अदालत में चल रहें हैं और अपनी तार्किक परिणति की प्रतीक्षा कर रहें हैं|
मैं लगातार सोचता रहा हूँ कि कैसे और क्योकर हुई होगी ऐसी लोमहर्षक घटना ? होशोहवास में कैसे एक सामान्य मनुष्य किसी की जान ले सकता है ? वह भी एक की नही पूरे समूह की ? बिना किसी ऐसी दुश्मनी के जिसके कारण आप क्रोध से पागल हुए जा रहों कैसे आप किसी नौजवान के सीने से सटाकर अपनी रायफल का घोडा दबा सकतें है ? बहुत सारे प्रश्न है जो आज भी मुझे मथते हैं । इन प्रश्नों के उत्तर तलाशनें के लिये हमें उस दौर को याद करना होगा जब यह घटना घटी थी। बडे खराब थे वे दिन । लगभग दस वर्षों से उत्तर भारत मे चल रहे राम जन्मभूमि आन्दोलन नें पूरे समाज को बुरी तरह से बांट दिया था । उत्तरोत्तर आक्रामक होते जा रहे इस आन्दोलन ने खास तौर से हिन्दू मध्यवर्ग को अविश्वसनीय हद तक साम्प्रदायिक बना दिया था । देश विभाजन के बाद सबसे अधिक साम्प्रदयिक दंगे इसी दौर मे हुए थे । स्वाभाविक था कि साम्प्रदायिकता के इस अन्धड से पुलिस और पी.ए.सी. के जवान भी अछूते नहीं रहे थे ।पी.ए.सी पर तो पहले से भी साम्प्रदायिक होनें के आरोप लगते रहे हैं । मैनें इस किताब के सिलसिले में वी.के.बी नायर, जो दंगों के शुरुआती दौर में मेरठ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे, से एक लम्बा इंटरव्यू लिया था और जो बातें 23 साल बाद भी उन्हें याद थीं उनमें एक घटना बडी मार्मिक थी। दंगे शुरू होने के दूसरे या तीसरे दिन ही एक रात शोर शराबा सुनकर जब वे घर के बाहर निकले तो उन्होनें देखा कि उनके दफ्तर में काम करने वाला मुसलमान स्टेनोग्राफर बंगले के बाहर बीबी बच्चों के साथ खडा है और बुरी तरह से दहशतजदा उसके बच्चे चीख चिल्ला रहे हैं।पता चला कि पुलिस लाइन में रहने वाले इस परिवार पर वहाँ कैम्प कर रहे पी.ए.सी. के जवान कई दिनों से फिकरे कस रहे थे और आज अगर अपने कुछ पडोसियों की मदद से वे भाग नही निकले होते तो सम्भव था कि उनके क्वार्टर पर हमला कर उन्हे मार दिया जाता । पूरे दंगों के दौरान यह परिवार वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक निवास में शरण लिये पडा रहा ।मेरठ से जब कुछ मुसलमान कैदी फतेहगढ जेल ले जाया गये तो उनमे से कई को वहाँ के बन्दियों और वार्डरों ने हमला करके मार डाला ।ऐसे ही भयानक थे वे दिन।
फिर भी वे इस हद तक कैसे गये होंगे – मैं इस गुत्थी को सुलझाना चाहता था ।मैं हत्यारों की उस मानसिकता को समझना चाहता था जिसके तहत बिना किसी पूर्व परिचय या व्यक्तिगत दुश्मनी के उन्होनें निहत्थे और अपनी अभिरक्षा में मौजूद नौजवान लडकों को एक एक करके भून डाला और असहाय, जमीन पर छ्टपटाते घायलों पर भी तब तक गोलियाँ चलायीं जब तक उन्हें यकीन नही हो गया कि उनका काम तमाम हो गया है ।मैने 23 साल इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने मे लगाये हैं और अब जब काफी हद तक यह गुत्थी सुलझ गयी है मैं अपनी किताब पर काम करने बैठा हूँ ।मुझे अफसोस है कि प्लाटून कमांडर सुरेन्द्र सिंह, जो इस पूरी कथा का नायक या खलनायक है, अब मर चुका है और उसके साथ बिताये वे बहुत सारे घंटे बेकार हो गये हैं जिनके दौरान मैने उस मानसिकता को समझने का प्रयास किया था जिसके चलते वह अपने नेतृत्व वाली एक छोटी सी टुकडी से ऐसा जघन्य काम करवा पाया होगा ।मेरी स्मृति और बात चीत के बाद लिये गये छिटपुट नोट्स मे कई दिलचस्प चीजें दर्ज है पर मै अब उनका इस्तेमाल बहुत कम और अनिवार्य होने पर ही करूंगा जिससे किसी को यह कहने का मौका न मिले कि मैने उसमे कुछ अपनी तरफ से जोडा या घटाया है ।इसी तरह पी.ए.सी. की इकतालीसवीं बटालियन के तत्कालीन कमांडेंट जोध सिहं भंडारी भी अब जीवित नही हैं, अत: उनके साथ हुई अपनी लम्बी बात चीत का जिक्र भी अपरिहार्य होने पर ही करूंगा ।
यह कथा दरअस्ल एक ऐसे कर्ज को चुकाने का प्रयास है जो 22 मई 1987 से मेरे सीने पर एक बोझ की तरह लदा है ।










दश्त को देख के घर याद आया

मृत्यु से ऐसा निकट का साक्षात्कार कि जब आप की आँखें खुलें तो आप अपने अगल बगल लेटे मृत और अर्द्धमृत शरीरों को छूकर आश्वस्त होना चाहें कि आप अभी जीवित हैं । पिघला हुआ लोहा जब आपकी मांशपेशियों को चीरता हुआ बाहर निकले तब तक आपकी इन्द्रियाँ इतनी सुन्न हो चुकीं हों कि जीवन से मृत्यु में प्रवेश रुई के फाहों सा आकाश में उडना हो जहाँ और कुछ भी हो पर दर्द न हो, भय न हो और इतना समय भी न हो कि स्मृतियाँ आपको परेशान कर सकें। आपके इर्द गिर्द गरजती हुयी राइफलों का शोर हो और हों उस शोर को हिंस्र उत्तेजना से भरती हुयी हत्यारों की चीख भरी गालियाँ और इन दोनों के बीच सुन्न चेतना से उस क्षण की प्रतीक्षा जब अगल बगल से गुजरती कोई गोली आपके शरीर में इस तरह प्रवेश करे कि आपका शरीर एक क्षण के लिये जमीन से ऊपर उछले और ऐंठता हुआ गिर पडे। ऐसी मौत को आप क्या कहेंगे ? खास तौर से तब जब कि अपने हत्यारे को आप पहली बार गौर से देख रहें हों और लाख कोशिश करने पर भी आपको ऐसा कोई कारण नजर न आये कि आप उसके हाथों कत्ल हों। बाबूदीन, मुजीबुर्रहमान, मो. नईम,आरिफ, जुल्फिकार नासिर या मो.उस्मान को कैसा लगा होगा जब मौत से चंद सेकेण्ड दूर उन्होंने अपने मित्रों, रिश्तेदारों या साथ मेहनत मजूरी करने वालों को मरोड खा ऐंठते और जमीन पर गिर कर छटपटाते देखा होगा और सुन्न इन्द्रियों वाले उनके शरीर भागने जैसी स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी नहीं कर सके होगें? जान बचाने के लिये सबने एक जैसी ही हरकत की । शरीर के किसी हिस्से में गोली लगने के बाद सभी अलग अलग तरह से जमीनों पर गिरे पर आसन्न मृत्यु से बचने का प्रयास एक जैसा ही हुआ। दोनों घटनास्थल, जहाँ इन 42 व्यक्तियों को उतारकर गोली मारी गयी थी, एक जैसे ही थे। दोनों नहरों के किनारे थे और दोनों ही नहरों में ही तेज रफ्तार से पानी बह रहा था।
हर बचने वाले ने गोली लगने के बाद धरती पर नि:श्चेष्ट नि:शब्द लेटकर हत्यारों को धोखा देने की कोशिश की कि वह मर चुका है। सभी नहर के पानी में अपने धड का ज्यादा हिस्सा डुबोये , सरकण्डे या दूसरे किसी झाड झंखाड को पकडे मृत अर्द्धमृत शरीरों के बीच इस तरह पडे रहे कि मारने वाले अपना दायित्व पूरा करने का संतोष लेकर वहां से हट जायें।हत्यारों के चले जाने के बाद भी वे देर तक खून,पानी और कीचड में लथपथ बिना किसी हरकत के पडे रहे। उन्होंने मनुष्य स्वभाव की उस सहज प्रवृत्ति का भी उल्लंघन किया जिसके तहत मुसीबत में पडा व्यक्ति अपने जैसे दो हाथों दो पैरों वाले जीव को देखते ही उसकी तरफ मदद के लिये झपटता है। हत्यारों के जाने के घंटों बाद भी घटनास्थल पर आने वाला हर मनुष्य उन्हें उन्हीं हत्यारों के गिरोह का सदस्य लगता था और उसे देख कर मदद मांगना तो दूर वे और ज्यादा अपने खोल में सिकुड जाते थे। खास तौर से अगर बाद में आने वाला खाकी में हो।

गोली लगने के लगभग तीन घंटे बाद बाबूदीन से मेरी मुलाकात हुयी। एक मरियल , पिचके गालों वाला औसत कद का लड़का भीगे परों वाली किसी गौरैया सा सहमा हुआ हमारे सामने खडा था । पतलून के पाँयचों में नहर की तलहटी का कीचड भरा था और कमीज इतनी तर थी कि अगर उसे उतारकर निचोड़ा जाता तो एकाध लीटर पानी निकल आता । मई की उस सड़ी गर्मी में भी उसका शरीर बीच-बीच में सिहर जाता था। मैंने गौर किया कि १९-२० साल का चेचकेहरू चहरे वाला लड़का बोलते समय हकला जरूर रहा था पर उसकी आवाज में अजीब तरह की निर्लिप्त तटस्थता व्याप्त थी। मृत्यु के इतने करीब पहुंचे व्यक्ति में आस-पास पसरे हुए के प्रति ऐसी उदासी ? जिस निर्वैक्तिकता के साथ उसने हाशिमपुरा से मकनपुर की यात्रा का बयान किया उससे मुझे अपने शरीर मे झुरझुरी सी दौडती महसूस हुयी थी पर आज दो दशकों के बाद मैं सोचता हूं तो लगता है की मौत जब हमारी तरफा झपटती है तब हमें दहशत जरूर होती है पर अगर कुछ देर तक वह हमारी सहयात्री रहे और फिर हमें छोड़ती हुयी आगे चली जाय तो शायद हम इसी तरह की अनासक्त उदासी से भर जातें हैं ।
बाबूदीन के कपडे गीले थे और उनपर जगह जगह हलके ललौछं रंग के धब्बे भी थे । थोड़ा गौर से देखने पर स्पष्ट हो गया की शरीर के दो स्थानों पर गीली कमीज चिपक सी गयी थी और उनपर पानी के लगातार स्पर्श के बावजूद खून के थक्के जम गए थे। पहला बांयीं कांख के नीचे पीठ की तरफ और दूसरा सीने पर दाहिनी ओर था जहाँ गाढा कत्थई रंग दिख रहा था। ऐसा लगता था की इन दोनों जगहों पर गोली उसके मांस को चीरती हुयी बाहर निकल गयी थी ।
वह थका और उदास जरूर नजर आ रहा था लेकिन अपने पैरों पर चल सकता था ।हम उसे लेकर थाना लिंक रोड की तरफ बढे पर वह दस कदम भी नही चला होगा कि उसकी चाल लडखडाने लगी । शायद घंटों सरकंडो को पकडे पकडे लटकने का असर अब नजर आने लगा था ।एक सिपाही ने सहारा देकर उसे रास्ते मे पडने वाली पुलिया पर बैठा दिया। मई के आखिरी हफ्ते में, जब मानसून अभी दूर हो और बारिश का कहीं अता पता न भी हो तब भी,गाजियाबाद और उसके आस पास के इलाकों में इतनी उमस होती है कि आप पसीने मे नहाये होते हैं । हम सभी थकान और चिपचिपाहट से पस्त थे। सिर्फ बाबूदीन था जो बीच बीच मे सिहर उठता था । 21 वर्ष बाद जब मै इस किताब को लिखनें के लिये सामग्री एकत्रित कर रहा था और बाबूदीन से उसी हाशिमपुरा में मिला जहां से पी.ए.सी. उसे अपने करीबी रिश्तेदारों के साथ उठा कर ले गयी थी,मेरा परिचय जानते ही उसने मुस्कराते हुये मुझे याद दिलाया था कि मई की उस सडी गर्मी मे उसे सिहरते देख कर एक सिपाही से मांगकर मैने उसे बीडी दी थी। वह धूम्रपान नही करता था इसलिये उसने खामोशी से सर हिला कर मना कर दिया। उसके बाद उसने बोलना शुरु किया तो न जाने कितनी देर तक बोलता ही रहा । बीच बीच में वह सिहरता जरूर था पर स्वगत कथन की तरह असम्बद्ध टुकडों मे जो कुछ वह देर तक बोलता रहा वह उसे घेरकर खडे आठ दस अफसरों और थोडी दूर पर मौजूद बीस पचीस की संख्या वाले सरकारी अमले के लिये किसी दु:स्वप्न से कम नही था । वह एक ऐसी कथा का नैरेटर था जो अविश्वसनीय हद तक दुखांत थी ।

वहाँ रुकनें का कोई अर्थ नही था , जो कुछ बाबूदीन नें अब तक हमें बताया था वह इतना भयानक था कि मै और जिला मैजिस्ट्रेट नसीम जैदी , दोनों भीड से हटकर आपस मे फुसफुसाकर कर बात करते हुये इस बात पर सहमत हुए कि दूसरे दिन गाजियाबाद जल सकता है। हमें दो स्तरों पर कार्यवाही करनी थी और वह भी बिना कोई समय गवाये । पहला काम तो था बाबूदीन से पूरी जानकारी हासिल कर एफ. आई. आर. दर्ज कराना और सबेरा होते ही नहर से शवों को निकलवा कर पोस्टमार्ट्म के लिये भिजवाना और दूसरी उससे भी महत्वपूर्ण बात थी अगले दिन यह सुनिश्चित करना कि जब ये लाशें मार्चरी पहुचें तो अफवाहें शहर को जला न दें । जब से मेरठ मे आग लगी थी हमारे दिन और रातें इसी भागदौड मे बीत रहीं थीं कि गाजियाबाद इन लपटों से बचा रहे।
कुछ लोगों को पीछे निगरानी के लिये छोड हम बाबूदीन को लेकर थाना लिंक रोड के लिये निकल पडे । लगभग 50-60 गज की दूरी पर गाडियां पार्क थीं ।मेरे आगे दस बारह लोगों का काफिला एक कतार मे चला जा रहा था – दूसरे या तीसरे क्रम पर बाबूदीन था – सर झुकाये हुए खामोशी से बढता हुआ ।उसके जख्म ऐसे नही थे कि उसे चलने के लिये किसी सहारे की जरूरत पडे इसलिये उसनें शुरू में ही सहारे की पेशकश ठुकरा दी थी । सडी गर्मी वाली और बदबूदार पसीनें से लथपथ वह अंधेरी रात अब तक मेरी स्मृतियों में टंगी हुई है जिसमें उस पूरे काफिले के पीछे खडे मैने बाबूदीन और उसके साथियों को गाडियों में बैठते देखकर एक उडती नजर अपने बगल मे खडे जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी की तरफ डाली और उनके राखपुते चेहरे को देख कर मुझे लगा था कि उन्हें भी मेरी तरह किसी शवयात्रा मे भाग लेने जैसी अनुभूति हो रही है।काफिले के लोग खडी कारों और जीपों में सवार हो गये तो मै और नसीम जैदी भी जिला मजिस्ट्रेट की कार मे बैठ गये ।हमारी कार के पीछे पीछे चार पांच गाडियां अगले दस बारह मिनटों में थाना लिंक रोड में थीं ।
एक बार फिर पूंछ तांछ का सिलसिला शुरू हुआ । थानाध्यक्ष के कमरे में जिला मजिस्ट्रेट और मेरे साथ चार पांच अफसर एक मेज के तीन तरफ बैठ गये ।सामने की कुर्सी पर बाबूदीन को बिठा दिया गया । शुरू की झिझक दूर होते ही उसने अपना बयान शुरू किया । इस बार वह अधिक व्यवस्थित था । शायद समय के अंतराल नें उसे मृत्यु के भय से दूर कर दिया था और हमारी खाकी उसे अपने हत्यारों की खाकी से भिन्न लगने लगी थी। इस बार बोलते समय वह असम्बद्ध वाक्यों का इस्तेमाल नही कर रहा था । उसने विस्तार से अपनी गिरफ्तारी का जिक्र किया , अपने साथ पकडे गये दूसरो के बारे में बताया और दूसरों के साथ पी. ए. सी ट्रक मे चढाये जानें के बाबत पूरा किस्सा बयान किया ।पिछ्ले और इस बार के वर्णन में समानता यह थी कि उसका स्वर इस बार भी पूरी तरह से भावशून्य था और अन्दर तक छील देने वाली एक खास तरह की तटस्थता से लबरेज था ।मेरे अनुभव संसार की यह पहली घटना थी जिसमें कोई इतने ठंडे अदांज से मृत्यु से अपने करीबी साक्षात्कार का विस्तृत विवरण दे रहा था। पिछ्ली बार से फर्क यह था कि इस बार का नैरेशन तरतीबवार और सधा हुआ था।इसी लिये इस बार उससे वह विवरण नही छूटा जो इस मामले में बेहद महत्वपूर्ण साबित होने जा रहा था और जिसे सुनकर हम सभी चौक गये थे। नहर से निकाले जानें के बाद सुनाई गयी अपनी कहानी मे वह यह बताना भूल गया था कि हाशिमपुरा से उठाये गये मुसलमानों को लेकर तेज रफ्तार से दौडती हुई पी.ए.सी. की टृक मेरठ गाजियाबाद मार्ग पर अचानक दाहिने तरफ एक नहर की पटरी पर मुड गयी थी और मुख्य सडक से लगभग पचास गज अन्दर खडंजे पर उछलती कूदती जाकर रुक गयी थी।इसके बाद वहां भी वही सब कुछ हुआ जो लगभग एक घंटे बाद मकनपुर की नहर पर होने जा रहा था ।
टृक की अगली सीट पर ड्रायवर के बगल मे बैठे जवानों के नहर की पटरी पर कूदने और उनके बूटों की खडंजे से टकरानें से उत्पन्न आवाजों मे कुछ था जिसनें पीछे ठुसे लोगों को यह अहसास जरूर करा दिया था कि कुछ ऐसा होने जा रहा है जिसे नही होना चाहिये था और जिसका सम्बंध उनसे था ।बाबूदीन को अपने पेट मे मरोड सी उठती लगी ।फरागत की एक आदिम इच्छा उसके मन मे उठी पर छ्ठी इन्द्रिय ने बता दिया था कि अब कुछ नही किया जा सकता है ।सामने से उतरे कुछ लोग तेजी से टृक के पीछे आये और उन्होनें मोटी जंजीरों से बाधें गये लोहे और लकडी के उस पटरे को खोल कर नीचे गिरा दिया जो टृक के पिछ्ले हिस्से के लगभग एक तिहाई को ढके हुए था और जिसकी वजह से यह हिस्सा किसी बन्द कमरे का सा आभास देता था ।पटरे के नीचे गिरते ही उससे सटकर पिछ्ले हिस्से में खडे जवान नीचे कूद गये। उनकी तेजी से लग रहा था कि वे जल्दी में थे और बर्बाद करने के लिये उनके पास वक्त नही था । उनके बूट जब नीचे पडे आडे तिरछे बेतरतीब ईट के छोटे बडे टुकडों से टकराए तो उनसे भय पैदा करने वाली ध्वनि पैदा हुई ।कई घंटे बाद भी जब बाबूदीन इस वाकए का जिक्र कर रहा था तो मैने बावजूद सारी तटस्थता के उसके चेहरे पर वही भय देखा था जो उस ध्वनि को सुनकर उसके और उसके सहयात्रियों के चेहरों पर तैरा होगा ।
दो तीन जवानों को छोडकर शेष नीचे खडंजे पर थे | उनमें से किसी ने कडकती आवाज में ऊपर ट्रक में खडे लोगों को नीचे कूदनें के लिये ललकारा । छ्ठी इन्द्रिय ने बाबूदीन को चेताया कि नीचे सब कुछ स्वाभाविक नही है ।वह लगभग बाहरी कतार में था , ललकार सुनते ही उसने भीतर सरकने की कोशिश की । तभी कोहराम मच गया।बाबूदीन की पीठ बाहर की तरफ थी इसलिये उसे दिखा तो कुछ नही पर पहले कुछ लोगों के बेतरतीब ढंग से नीचे कूदनें की आवाजें सुनायी दीं और फिर गालियों के साथ गोलियों का शोर ।सब कुछ गड्डमड्ड था लेकिन इतना समझ में आ रहा था कि कूदने वालों पर नीचे खडे पी.ए.सी. के जवान गोलियाँ चला रहे हैं । वे फायरिंग के साथ साथ चिल्ला चिल्ला कर कर गालियाँ भी बक रहे थे । शायद यह उनका अपने भय और घबराहट पर काबू पाने का प्रयास था ।ह्त्यारों की आवाजें हिंस्र उत्तेजना से भरी हुई थीं और उनकी आवाजों को डुबो देने वाली वे चीखें थीं जो मरने वालों की कराहों , जान बक्श देने की चिरौरियों और ताजा जख्मों के दर्द से उत्पन्न स्वरलहरियों से भरी थीं । अचानक नीचे खडे किसी जवान ने ऊपर ट्रक में मौजूद जवानों को ललकारा कि नीचे कूदने से गुरेज करने वाले कटुओं को गर्दनिया कर नीचे धकेल दें । ऊपर खडॆ जवानों नें रायफल के कुन्दों से बगल मे खडों को हुर्रियाया, कालर पकड कर पीछे खिसकने की कोशिश कर रहे लोगों को आगे की तरफ धकेला और कुछ को तो लग़भग बाहों मे भरकर नीचे फेक दिया । हर बार जब किसी के नीचे गिरने की ध्वनि आती उसी के साथ रायफल दगने और मनुष्य के तडपने की एक साथ आवाज होती। बाबूदीन को अपनी सासँ घुटती सी लगी , एक मजबूत हाथ कालर के पिछ्ले हिस्से को पकडकर उसे बाहर खीचं रहा था।उसनें पूरी ताकत लगा कर अपने को भीड मे धँसा कर आगे सरकने की कोशिश की। रस्साकशी जैसा खेल शुरू हो गया ।पर यह अधिक देर चला नही । कुछ मिनटों के अंतराल में ही बाबूदीन नें तरल शीशा अपनें बदन मे घुसता हुआ महसूस किया और मांस के जलनें की परिचित चिरायंध उसके नथुनों से टकरायी । उसके बगल मे खडा कोई उसके कन्धे को दोनों हाथों से थामने की असफल कोशिश करता हुआ धीरे धीरे नीचे सरक रहा था।उसने घबरा कर देखा – खून मे लिथडा अय्यूब था, उसके पास वाले कारखाने के लूम पर काम करने वाला । अगल बगल खडे लोगों के चीखने चिल्लानें और बाहर से आने वाली गालियों की ललकार ने बिना पीछे मुडे भी यह साफ कर दिया था कि लोगों को नीचे उतारने मे नाकामयाब रहने पर नीचे खडे हत्यारे अब ट्रक के अन्दर फायर झोंक रहे हैं और चीख चीख कर अन्दर मौजूद अपने साथियों से घायलों को बाहर फेंकनें के लिये कह रहे हैं ।उसकी टांगो पर अय्यूब के बाहों की मजबूत जकडन धीरे धीरे ढीली पडी और बाबूदीन नें कनखियों से देखा उसे कोई घसीटता हुआ ले जा रहा था । इस बयान के वर्षों बाद जब वह मुझे यह वाकया सुना रहा था मुझे उसके चेहरे पर वही भाव दिखा था – अपने बाल सखा को अंतिम बार देखने और उसके लिये कुछ न कर पाने वाली यही छ्टपटाहट उसके चेहरे पर तब भी थी ।
बाबूदीन नें अपने अगल बगल से लोगों को घसीटे जाते देखा । पीछे की तरफ खीचे जाने वाला हर व्यक्ति पूरी ताकत लगा कर आगे सरकने की कोशिश कर रहा था ।उसके कालर पर दबाव खत्म हो गया था । शायद उसके प्रतिरोध से झल्लाकर उसे खीचने वाला दूसरे शिकारों में व्यस्त हो गया था ।उसे अपने पेट की त्वचा का गीलापन महसूस हुआ । दर्द भी मद्धम स्वर लहरियों की तरह था जो इस पूरी जद्दो जहद के बीच शरीर में लगातार हौले हौले बह रहा था और बीच बीच मे पूरे जिस्म को झिझोड रहा था । एक बात आईने की तरह साफ थी । अगर जीवित रहना है तो इस ट्रक के ऊपर ही बने रहने की कोशिश प्राणपण से करनी होगी । अचानक ऐसा कुछ हुआ जिसकी अपेक्षा शिकार और शिकारियों मे से किसी को नही थी।नहर के खडंजे पर दूर रोशनी का एक वृत्त सा चमका ।पहले एक छोटा सा मद्धम रोशनी का एक गोला दिखाई दिया फिर वह धीरे धीरे करीब आता गया – क्रमश: बडा और चमकदार होता हुआ । सबसे पहले उस पर ड्रायवर की नजर पडी ।उसनें आंखे सिकोड कर पहले दूर क्षितिज पर सूर्योदय की तरह उगते आग के एक गोले को देखा । उसकी अनुभवी आंखो में एक कौधँ सी उठी और उसने पूरी एकाग्रता से एक गोले को दो में और छोटे प्रकाश पुंज को बडे में तब्दील होते देखा।उसकी हरकतों से बाबूदीन का ध्यान भी उस रोशनी के स्रोत पर गया जो , अब स्पष्ट होता जा रहा था कि , किसी बडी गाडी की हेडलाइट से उत्पन्न हो रही थी । बच सकने की सम्भावना पैदा हो रही है, आगे की तरफ झुके झुके बाबूदीन ने अपने दर्द पर काबू पाने का प्रयास करते हुए सोचा। ड्रायवर ने दरवाजे से मुह बाहर निकाल कर चिल्लाते हुए अपने साथियों को सतर्क करने का प्रयास किया ।बाहर माहौल में इस कदर उत्तेजना घुली हुई थी कि गोलियों और इंसानी चीख पुकार मे कोई भी ड्रायवर को नही सुन पा रहा था ।उसने अपनें साथियों को ललकारते हुए माँ बहिन की गालियां दी और जब उसका असर नही दिखायी दिया तो उसनें अपनी गाडी का हार्न बजाना शुरू कर दिया – पहले धीमे धीमे फिर तेज तेज । जैसे जैसे सामने वाली गाडी करीब आती गयी घबराहट में हार्न की आवाज बढती गयी पर जब तक वे सँभलते सामने से आने वाली गाडी इतने करीब आ गयी थी कि उसकी हेडलाइट के दोनों गोले जुडकर एक हो गये थे और उनसे उपजी रोशनी की चादर ने नहर,उसकी पटरी,पानी मे पूरे या आधे डूबे मानव शरीरों और खाकी हत्यारों को उनके हथियारों के साथ अपने आगोश में लपेट लिया था । यह एक दूध की गाडी थी जो शायद बगल के किसी गावँ से दूध इकठ्ठा करके लौट रही थी। रोशनी ने रात का तिलिस्म तार तार कर दिया था । दुनिया भर में हत्यारे अन्धेरा पसन्द करते हैं । रोशनी उनके अन्दर खौफ भरती है ।यहाँ भी हत्यारे रोशनी से डरे और उनमे से दो तीन अपनी रायफलें ताने सामने वाली गाडी की तरफ दौडे । ट्रक के पिछ्ले हिस्से मे खडे बाबूदीन को जितना कुछ दिखा उससे यह समझ मे आ गया कि गालियों और रायफलों की मदद से वे अगली गाडी के ड्राय़वर को अपनी हेडलाइट बुझाने के लिये कह रहे थे ।घबराये हुए उस ड्रायवर ने गालियों की अच्छी खासी बरसात झेलनें और रायफलों के दो चार बट अपने शरीर पर खाने के बाद रोशनियाँ बुझा दी ।एक बार फिर अन्धेरे के आगोश में पूरा इलाका डूब गया ।ट्रक के पिछ्ले हिस्से में खडे खडे झिर्रियों मे से बाबूदीन जो कुछ देख या समझ पाया उसके मुताबिक बाहर खडे जवानों ने आपस में थोडी देर मंत्रणा की और उनमे से फिर कुछ सामने वाली गाडी की तरफ लपके ।उन्होनें सख्त लहजे मे जो कुछ कहा उसके परिणाम स्वरूप उस गाडी के ड्रायवर ने बिना हेड्लाइट जलाये अपनी गाडी को पीछे करना शुरू किया और पी.ए.सी. के ड्रायवर नें भी उसी अन्धेरे में धीरे धीरे अपनी गाडी आगे बढायी ।थोडा चलकर दोनों गाडियाँ रुक गयीं।जहाँ ये रुकीं वहाँ पटरी थोडी चौडी थी और उनके रुकने की भी यही वजह थी । पी.ए.सी. के टृक की हेडलाइट जली,इंजन की गरगडाहट कुछ तेज हुई और उसके ड्रायवर नें गाडी बैक की और दूध के टैंकर से लगभग टकराते हुए तेज रफ्तार से अपना ट्रक नीचे कच्ची जमीन पर उतारा,पूरी ताकत से ब्रेक मारा और फिर उसी तेजी से बैक किया और थोडे प्रयास से ट्रक का मुहँ आने वाली दिशा मे हो गया ।इस अफरा तफरी में बाबूदीन के जख्म पर भी अगल बगल खडे लोगों की रगड लगती रही और वह दर्द से दुहरा हो हो कर अपना संतुलन बचाये रखने का प्रयास करता रहा ।
नीचे खडे लोग लगभग दौडते ट्रक पर उछ्ल कूद कर चढ गये और ट्रक तेजी से मुख्य सडक की तरफ लपका ।मेरठ से चलते समय सवार हुए लोगों मे से काफी लोग छूट गये थे इस लिये अन्दर भीड कम हो गयी थी पर इसका नुकसान यह हुआ कि उस ऊबड खाबड जमीन पर तेज रफ्तार से दौडती ट्रक में खाली हो गयी जगह की वजह से अपना संतुलन बनाये रखना मुश्किल हो गया था । हर झटके के साथ लोग एक दूसरे पर गिर गिर पडते । हर ऐसे झटके से गिरते सम्भलते और दर्द से बिलबिलाते बाबूदीन को आस पास से आती कराहों से पता चला कि ट्रक में उसके अलावा और भी जख्मी हैं । ये वो लोग थे जिन्हे हत्यारे ट्रक से नीचे नही उतार पाये थे और जब चिढकर उन्होनें अन्दर फायर झोंका तो ये घायल हो गये थे । ट्रक तेजी से मुख्य सडक तक आया और जैसे ही टी जंक्शन बना ड्रायवर नें बिना रफ्तार कम किये उसे गाजियाबाद की तरफ मोडा । अन्दर घायलों की चीख निकल गयी ।लोग अपना संतुलन बनाये रखनें का प्रयास करने के बावजूद एक दूसरे पर गिर गिर पड रहे थे । ट्रक किसी बदहवासी की सी हालत में भागा चला जा रहा था ।दिल्ली से मेरठ होकर देहरादून - मसूरी जाने वाली सडक का यह हिस्सा मई की गर्म रातों में अमूमन खचाखच भरा होता है।22 मई 1987 को हालात कुछ भिन्न थे ।दिल्ली की तरफ से इक्का दुक्का गाडियाँ हीं आ रहीं थीं। जाहिर था कि मेरठ मे लगे कर्फ्यू का असर सडक पर भी दिख रहा था और केवल स्थानीय ट्रैफिक ही सडक पर था और वह भी आम दिनो से कम ।मेरठ मे जो कुछ उन दिनों घट रहा था उसका सीधा असर आस पास के जिलों पर भी पड रहा था । खास तौर से गाजियाबाद तो ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा था। चारो तरफ अफवाहें ही अफवाहें थीं । स्वाभाविक था कि सडक पर लोग केवल मजबूरी में ही थे ।ऐसे मे उस खाली सडक पर यह अस्वाभाविक नही था कि तेज रफ्तार से दौडती उस ट्रक के पिछ्ले हिस्से मे खडे लोगों की चीख पुकार या उन्हें नियंत्रित करने के लिये हत्यारों की गालियों भरी तेज स्वर की डाटँ डपटों पर सडक चलतों का ध्यान नही गया।यह भी हो सकता है कि किसी का ध्यान गया भी हो तो पी.ए.सी. की गाडी देखकर उसे किसी कार्यवाही की जरूरत न महसूस हुई हो ।
मेरठ तिराहे पर ट्रक तेजी से दाहिने मुडा और पूरी रफ्तार से हिंडन नदी की तरफ लपका। नदी पार कर विश्व-प्रसिद्ध्र रम ओल्ड माँक बनाने वाली फैक्टरी मोहन मीकिंस के सामने से गुजरते हुए ट्र्क कुछ धीमा हुआ,पीछे सवारों का विलाप तेज हुआ लेकिन कुछ ऐसा नही हुआ जो इसकी रफ्तार को पूरी तरह से थाम सके । ट्रक आगे बढकर फिर बायें मुडा और तब तक एक लय से दौडता रहा जब तक वह उस पगडंडी पर नही मुड गया जो मकनपुर गावं की तरफ जाती थी ।यह पगडंडी भी मुरादनगर वाली खडंजे की सडक जैसी ही थी – ऊबड खाबड और चलते समय ट्रक और उसके मुसाफिरों के शरीर के अंजर पंजर को हिला देने वाली ।मुडते ही अन्दर खडे लोगों ने ऊंचे स्वर में चीखना चिल्लाना शुरू कर दिया । इसके पीछे बुरी तरह से हिलते ट्रक के कारण दुखते जख्म तो थे ही, छ्ठी इन्द्रिय द्वारा दी गयी यह चेतावनी भी थी कि इसी तरह अनजान एकांत को जाने वाला पथरीला कंकरीला रास्ता उन्हें मौत के मुह तक ले के गया था।आज जिस इलाके में कंक्रीट के घनें जंगल खडॆ हैं, 1987 में वहाँ कुछ नही था । सडक के एक तरफ लिंक रोड इंडस्ट्रियल एरिया था जिसके ज्यादातर कारखाने बीमार पडे थे और दूसरी तरफ मकनपुर गावँ की अनुपजाऊ धरती थी जो गाजियाबाद दिल्ली को जोडने वाली लिंक रोड पर गुजरने वालों को एक भूरे ऊसर विस्तार की तरह दिखती थी । इसी ऊसर को चीरती हुई यह पगडंडी थी जो एक नहर को पार करते हुए मकनपुर की आबादी तक जाती थी ।
नहर पर आकर ट्र्क रुक गया। एक बार फिर पुरानी कहानी दुहराई गयी। ट्र्क से कुछ लोग बाहर कूदे ।उन्होने ट्र्क का पिछ्ला तख्ता खोल कर नीचे गिरा दिया ।एक बार फिर कडकती आवाज मे लोगों को नीचे उतरने का आदेश दिया गया पर इस बार कोई नीचे नही उतरा । लोगों ने अन्दर दुबकने की कोशिश की ।वे एक क्षण के लिये सहम कर चुप जरूर हुए पर लगभग एक साथ ही ऊंचे स्वर मे उन्होनें विलाप करना शुरू कर दिया।हत्यारे जो इस बार कुछ ज्यादा ही जल्दी में थे चीख पुकार से और सक्रिय हो गये । ऊपर मौजूद खाकी में से दो तीन नें एक शिकार को दबोचा और हाथ पैर फेकते और दम भर प्रतिरोध करते हुए को नीचे फेक दिया ।उसके नीचे गिरते ही एक बन्दूक गरजी , तेज चीख गूंजी और इनके शोर से जैसे उमस भरी शांत हवा का सन्नाटा टूटा वैसे ही हवा मे उछाल कर फेंके गये मानव शरीर नें गिरते हुए नहर के लगभग स्थिर पानी को झकझोर कर मथ दिया ।इसके बाद ऊपर खडे लोगों की चीखों और ऊपर नीचे मौजूद हत्यारों की गाली भरी ललकारों के बीच पूरे प्रतिरोध के बावजूद लोग नीचे फेके जाते रहे , पिघले शीशे और बारूद की गन्ध हवा मे तैरती रही और नोयडा होते हुए दिल्ली जाने को तैयार उस नहर का थिर पानी कांप कांप जाता रहा ।दर्द और खौफ से मरोड खाता एक शरीर बेढंगे तरीके से पानी पर गिरता और टूटते पानी का वृत्त बनाते हुए गडप सा नीचे चला जाता । जब बाबूदीन की बारी आयी वे थक चुके थे । ऐसा लग रह था कि वे सिर्फ फर्ज अदायगी कर रहे थे । दो बलिष्ठ हाथों ने उसकी कमर को कसकर पकडा और उसे नीचे फेक दिया । उसे दो गोलियाँ लगीं थीं, पहली बांयीं कांख के नीचे पीठ की तरफ और दूसरी सीने पर दाहिनी ओर था ऐसा लगता था की इन दोनों जगहों पर गोली उसके मांस को चीरती हुयी बाहर निकल गयी थी । वह ऐसी जगह गिरा था जहाँ घनी सरकंडे की झाडियाँ थीं और जिसके बारे में उस अन्धेरे में यह अन्दाज लगाना मुश्किल था कि वह पानी है या किनारा ।गिरते ही बाबूदीन नें महसूस कर लिया कि उसका निचला धड पानी मे और शरीर का ऊपरी हिस्सा सरकंडो के बीच अटका था । उसे दो गोलियाँ मारी गयीं थीं और वह जीवित था । 22 / 23 मई 1987 की उस रात चारों तरफ से खुद को घेर कर बैठे लोगों को यह वाकया सुनाते समय वह बार बार अल्लाह का करम है, अल्लाह का करम है कहकर अपने बचने को पारिभाषित करता रहा ।
एक बात जमीन पर गिरते ही बाबूदीन को समझ में आ गयी थी कि अगर जिन्दा रहना है तो हत्यारों को अपनी मृत्यु का विश्वास दिलाना होगा और उसनें यही किया भी।अपना काम खत्म करने के बाद हत्यारों नें उस धुप्प अन्धेरे में कई तरह से यकीन करने की कोशिश की कि कोई जिन्दा तो नही बचा है।उनके पास एक टार्च थी और जिसे जलाकर सरकंडे के उस संजाल मे जीवन के चिन्ह तलाशे गये , जहाँ कही कोई हरकत दिखी उधर फायर झोंका गया, बाहर जमीन पर पडे शरीरों को बूटों की ठोकरों से तौला गया । नि:श्चेष्ट , साँस रोके बाबूदीन नें अपनें चेहरे पर रोशनी की तपिश महसूस की पर उसका नाटक काम आया और उसे मृत मान लिया गया ।
बाबूदीन के लिये समय रुक गया था , उसे कुछ नही याद कि वह कितनी देर तक दम साधे वैसे ही पडा रहा । आंखे बन्द किये किये उसने ट्र्क का इंजन स्टार्ट किये जाने की आवाज सुनी, उसकी हेड्लाइट की रोशनी में क्षण भर के लिये पूरी नहर को प्रकाशमान होता महसूस किया और फिर धीरे धीरे छाते हुए अन्धेरे में अपनी आंखे खोलीं ।आस पास एक भयावना सन्नाटा पसरा हुआ था । वह आंखे खोलता बन्द करता रहा औरआस पास जो कुछ था उसे महसूस करने की कोशिश करता रहा । भय उसे हिलने डुलने से रोकता और जरा सा खटका होते ही उसका शरीर निस्पंद हो जाता । इसी लिये जब हम पहुंचे तो काफी देर लग गई उसे यह आश्वस्त करनें मे कि हमने खाकी जरूर पहन रखी थी पर हम पहले वालों से भिन्न थे । बाबूदीन ने मकनपुर पहुचने के पहले जिस नहर का जिक्र किया था उसकी शिनाख्त करने मे हमें देर नही लगी । हम मे से कई मेरठ गाजियाबाद मार्ग पर अक्सर सफर करते थे । खुद मै और जिलाधिकारी लगभग हर दूसरे तीसरे मोदीनगर या मेरठ जाते रहते थे और उसके विवरण से यह अनुमान लगाने मे हमें कठिनाई नही हुई कि यंहा आने के पहले पी.ए.सी का ट्रक मुरादनगर के पास गंग नहर पर मुडा था। यह नहर मेरठ से गाजियाबाद आते समय मोदीनगर पार करते ही मुरादनगर कस्बे के शुरू होने के पहले सडक को काटती हुई बहती थी ।मैने फौरन लिंक रोड थाने के वायरलेस सेट से मुरादनगर थाने के थानाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह भगोर से बात की ।हमारा अनुमान सही निकला ।पिछ्ली घटना उसी तरह घटी थी और नहर की तरफ से आती हुई फायरिंग की आवाज सुनकर वहा पहुचे पुलिसकर्मियों को वही सब देखने को मिला था जैसा बाबूदीन ने हमें बताया था । फर्क सिर्फ इतना था कि बाबूदीन को नही पता था कि वहां नहर से तीन लोग जिन्दा निकले हैं और वे थाना मुरादनगर पर मौजूद थे ।

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